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दो० १०६ तक संशोधित
<br>अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस॥८९॥
<br>मासपारायण,तीसरा विश्राम
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<br>चौ०-सुनि बोलीं मुसकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥
<br>तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा॥
<br>दो०-हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास॥
<br>चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास॥९०॥
<br>–*–*–<br>चौ०-सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥
<br>बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥
<br>हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई॥
<br>लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥
<br>सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे॥
<br>दो०- लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।<br>होहि होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥९१॥<br>–*–*–
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<br>सिवहि संभु गन संभुगन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
<br>कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥
<br>ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥
<br>दो०-बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।
<br>बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥९२॥
<br>–*–*–<br>चौ०-बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥
<br>बिष्नु बचन सुनि सुर मुसकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥
<br>मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥
<br>दो०-जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ।
<br>रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ॥९४॥
<br>–*–*–<br>चौ०-नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥
<br>करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥
<br>हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥
<br>दो०-समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं।
<br>बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥९५॥
<br>–*–*–<br>चौ०-लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥
<br>मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥
<br>कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥
<br>तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं॥
<br>घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥
<br>दो०-भई भईं बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि।
<br>करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥९६॥
<br>–*–*–<br>चौ०-नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥
<br>अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लगि तपु कीन्हा॥
<br>साचेहुँ उन्ह के मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥
<br>पर घर घालक लाज न भीरा। बाझँ कि जान प्रसव कैं कै पीरा॥
<br>जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥
<br>अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥
<br>करम लिखा जौ बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥
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<br>तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥
<br>छं०-जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं।
<br>दो०-तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।
<br>समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥९७॥
<br>–*–*–<br>चौ०-तब नारद सबहि समुझावा। पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा॥
<br>मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥
<br>अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा संभु अरधंग निवासिनि॥
<br>दो०-सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।
<br>छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद॥९८॥
<br>–*–*–<br>चौ०-तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥
<br>नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥
<br>लगे होन पुर मंगलगाना। सजे सबहि हाटक घट नाना॥
<br>भाँति अनेक भई जेवराना। जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥
<br>सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥
<br>सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती॥
<br>दो०-बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ।
<br>समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥९९॥
<br>–*–*–<br>चौ०-बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥
<br>बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥
<br>सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा॥
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<br>कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥१००॥
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<br>चौ०-जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
<br>गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥
<br>पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हिंयँ हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
<br>बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥
<br>बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
<br>दो०-नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
<br>छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥१०१॥
<br>–*–*–<br>चौ-बहु बिधि संभु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
<br>जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥
<br>करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
<br>कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥
<br>भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥
<br>पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥
<br>सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥
<br>छं०-जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
<br>फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई॥गईं॥
<br>जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
<br>सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥
<br>दो०-चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।
<br>बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥१०२॥
<br>–*–*–<br>चौ०-तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
<br>आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥
<br>जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
<br>सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
<br>पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥
<br>दो०-प्रथमहिं मै मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
<br>सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥१०४॥
<br>–*–*–<br>चौ०-मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥
<br>सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥
<br>राम चरित अति अमित मुनिसा। मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
<br>तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥
<br>सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥
<br>दो०-जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
<br>नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥१०६॥
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