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बैठने की जगह / मोहन साहिल

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|रचनाकार=मोहन साहिल
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<poem>
अब किया है पक्का इरादा
फिर बदल डालूँगा बैठने की जगह
यहाँ फैल गया है बहुत धुआँ
सामने पड़ी चाय की प्याली में
घुल गई है कड़वाहट

आ जमे हैं मेरे इर्द-गिर्द
बहुत से अनचाहे लोग
बेवजह दाँत निपोरते ठहाके लगाते

मुझे नहीं करनी चर्चा
राजनीति और साहित्य पर
क्षितिज पर क्या चमक रहा है
इस अँधेरे मे भी
बता नहीं सकता
क्योंकि
परेशान हूँ मैं
माँ की खाँसी की खर्राहट से
बीवी की बिवाइयों का लहू
फैला है घर में हर ओर
कंपकंपी छूटती है
बेटे की फटी कमीज़ से झाँकता सीना देखकर
बेटा जो उत्सव में जाने को तैयार है
कौन हैं वे लोग जो गर्वित हैं
धक्कों से चलती गाड़ी में बैठे
गड्ढों की कीचड़ हमारे चेहरे पर पोतकर

सड़क के करीब रहना कितना कठिन है
हर वाहन मेरे ही घर के आगे हार्न बजाता है
और खंडित कर जाता है
कहीं न जाने का विचार

मैं हर बार उसी छोटे घर में
बदल लेता हूँ बैठने की जगह
पहले से हर बार असुरक्षित
खाँसी के और करीब
लहू से अधिक लिथड़ा
और कीचड़ में फिर पुतता है चेहरा।
</poem>
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