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जंगल-3 / कीर्त्तिनारायण मिश्र
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20:27, 21 जनवरी 2009
पत्थरों-पर्वतों
सबको अपना हृदय-रस पिलाया
शुष्क को सरस
कठोर को कोमल
जड़ को चेतन बनाया
अक्षय भंडार था
तुम्हारे पास जीवन का
तुमने उसे जिया दिया मुक्त हो लुटाया
अब तो तुम
जड़ हो नग्न हो
हन्य हो भक्ष्य हो
तुमने जिन्हें जीवन दिया
उन्हीं के शरण्य हो
जंगल तुम
कितने उत्पीड़ित हो
कितने उद्भ्रान्त हो
कितने अशान्त हो ।
</poem>
अनिल जनविजय
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