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<br>बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें।।जैसें॥<br>पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी।।भवानी॥<br>जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा।।दीन्हा॥<br>बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई।।आई॥<br>पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी।।बानी॥<br>कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी।।सैलकुमारी॥<br>बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी।।तुम्हारी॥<br>चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा।।सेवा॥<br>दो0दो०-प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम।।धाम॥<br>जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम।।107।।नाम॥१०७॥
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<br>जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी।।दासी॥<br>तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना।।नाना॥<br>जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई।।सोई॥<br>ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी।।भारी॥<br>प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी।।अनादी॥<br>सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना।।गाना॥<br>तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती।।आराती॥<br>रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई।।कोई॥<br>दो0दो०-जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।<br>देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि।।108।।मोरि॥१०८॥
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<br>जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ।।सोऊ॥<br>अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू।।करहू॥<br>मै बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई।।सुनाई॥<br>तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा।।पावा॥<br>अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें।।जोरें॥<br>प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा।।क्रोधा॥<br>तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं।।माहीं॥<br>कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा।।सुरनाथा॥<br>दो0दो०-बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।<br>बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि।।109।।निचोरि॥१०९॥
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<br>जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी।।तुम्हारी॥<br>गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं।।पावहिं॥<br>अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया।।दाया॥<br>प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी।।धारी॥<br>पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा।।उदारा॥<br>कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं।।काहीं॥<br>बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा।।मारा॥<br>राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखलीला।।सुखलीला॥<br>दो0दो०-बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।<br>प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम।।110।।धाम॥११०॥
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<br>पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी।।ग्यानी॥<br>भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा।।बिभागा॥<br>औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका।।बिबेका॥<br>जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई।।गोई॥<br>तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना।।जाना॥<br>प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई।।भाई॥<br>हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए।।छाए॥<br>श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा।।पावा॥<br>दो0दो०-मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।<br>रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह।।111।।लीन्ह॥१११॥
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<br>झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें।।पहिचानें॥<br>जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई।।जाई॥<br>बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू।।नामू॥<br>मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी।।बिहारी॥<br>करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी।।उचारी॥<br>धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी।।उपकारी॥<br>पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा।।गंगा॥<br>तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी।।लागी॥<br>दो0दो०-रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।<br>सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं।।112।।नाहिं॥११२॥
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<br>तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई।।होई॥<br>जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना।।समाना॥<br>नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा।।लेखा॥<br>ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला।।मूला॥<br>जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी।।प्रानी॥<br>जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना।।समाना॥<br>कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती।।हरषाती॥<br>गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला।।बिमोहनसीला॥<br>दो0दो०-रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।<br>सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि।।113।।जानि॥११३॥
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<br>रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी।।उडावनिहारी॥<br>रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी।।गिरिराजकुमारी॥<br>राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए।।गाए॥<br>जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना।।नाना॥<br>तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी।।तोरी॥<br>उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई।।भाई॥<br>एक बात नहि मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी।।भवानी॥<br>तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना।।ध्याना॥<br>दो0दो०-कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।<br>पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच।।114।।साच॥११४॥
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<br>अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी।।लागी॥<br>लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी।।देखी॥<br>कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी।।हानी॥<br>मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना।।दीना॥<br>जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका।।अनेका॥<br>हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं।।नाहीं॥<br>बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे।।बिचारे॥<br>जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन् कर कहा करिअ नहिं काना।।काना॥<br>सो0सो०-अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।<br>सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम।।115।।मम॥११५॥<br>सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।बेदा॥<br>अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।होई॥<br>जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें।।जैसें॥<br>जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा।।प्रसंगा॥<br>राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा।।लवलेसा॥<br>सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना।।बिहाना॥<br>हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना।।अभिमाना॥<br>राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना।।पुराना॥<br>दो0दो०-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ।।नाथ॥<br>रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ।।116।।माथ॥११६॥
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<br>निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी।।प्रानी॥<br>जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी।।कुबिचारी॥<br>चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ।।भाएँ॥<br>उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा।।सोहा॥<br>बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता।।सचेता॥<br>सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई।।सोई॥<br>जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू।।धामू॥<br>जासु सत्यता तें जड माया। भास सत्य इव मोह सहाया।।सहाया॥<br>दो0दो०-रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि।<br>जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि।।117।।टारि॥११७॥
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<br>एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई।।अहई॥<br>जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई।।होई॥<br>जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई।।रघुराई॥<br>आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा।।गावा॥<br>बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना।।नाना॥<br>आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।जोगी॥<br>तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा।।असेषा॥<br>असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी।।बरनी॥<br>दो0दो०-जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान।।ध्यान॥<br>सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान।।118।।भगवान॥११८॥
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<br>कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी।।बिसोकी॥<br>सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी।।अंतरजामी॥<br>बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं।।दहहीं॥<br>सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं।।तरहीं॥<br>राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी।।बानी॥<br>अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं।।जाहीं॥<br>सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना।।रचना॥<br>भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती।।बीती॥<br>दो0दो०-पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।<br>बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि।।119।।सानि॥११९॥
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<br>ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी।।भारी॥<br>तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ।।परेऊ॥<br>नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा।।प्रसादा॥<br>अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी।।अयानी॥<br>प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू।।अहहू॥<br>राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी।।बासी॥<br>नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू।।बृषकेतू॥<br>उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता।।पुनीता॥<br>दो0दो०-हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान<br>बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान।।120कृपानिधान॥१२०(क)।।
<br>नवान्हपारायन,पहला विश्राम
<br>मासपारायण, चौथा विश्राम
<br>सो0सो०-सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।<br>कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड।।120गरुड॥१२०(ख)।।
<br>सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
<br>सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ।।120अनघ॥१२०(ग)।।
<br>हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
<br>मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु।।120सुनहु॥१२०(घ।।घ॥
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<br>सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए।।गाए॥<br>हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई।।सोई॥<br>राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी।।सयानी॥<br>तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना।।अनुमाना॥<br>तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही।।मोही॥<br>जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी।।अभिमानी॥<br>करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी।।धरनी॥<br>तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा।।पीरा॥<br>दो0दो०-असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।<br>जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु।।121।।हेतु॥१२१॥
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<br>सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं।।धरहीं॥<br>राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका।।एका॥<br>जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी।।भवानी॥<br>द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ।।कोऊ॥<br>बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई।।पाई॥<br>कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन।।मोचन॥<br>बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता।।निपाता॥<br>होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा।।बिस्तारा॥<br>दो0दो०-भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।<br>कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान।।122 जान॥१२२
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<br>मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना।।प्रवाना॥<br>एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी।।अनुरागी॥<br>कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता।।बिख्याता॥<br>एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा।।संसारा॥<br>एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे।।हारे॥<br>संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा।।मारा॥<br>परम सती असुराधिप नारी। तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी।।पुरारी॥<br>दो0दो०-छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह।।कीन्ह॥<br>जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह।।123।।दीन्ह॥१२३॥
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<br>तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना।।भगवाना॥<br>तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ।।दयऊ॥<br>एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा।।नरदेहा॥<br>प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी।।घनेरी॥<br>नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा।।अवतारा॥<br>गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि।।ग्यानि॥<br>कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा।।कीन्हा॥<br>यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी।।भारी॥<br>दो0दो०- बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।<br>जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ।।124होइ॥१२४(क)।।<br>सो0सो०-कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।<br>भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद।।124मद॥१२४(ख)।।
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<br>हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि।।सुहावनि॥<br>आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा।।भावा॥<br>निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा।।अनुरागा॥<br>सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी।।समाधी॥<br>मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह समाना।।समाना॥<br>सहित सहाय जाहु मम हेतू। चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू।।जलचरकेतू॥<br>सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा।।बासा॥<br>जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं।।डेराहीं॥<br>दो0दो०-सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।<br>छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज।।125।।लाज॥१२५॥
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<br>तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ।।निरमयऊ॥<br>कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा।।भृंगा॥<br>चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी।।बढ़ावनिहारी॥<br>रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना।।प्रबीना॥<br>करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा।।पतंगा॥<br>देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना।।नाना॥<br>काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी।।पापी॥<br>सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू।।जासू॥<br>दो0दो०- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।<br>गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन।।126।।बैन॥१२६॥
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<br>भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा।।परितोषा॥<br>नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई।।सहाई॥<br>मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी।।बरनी॥<br>सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा।।नावा॥<br>तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं।।माहीं॥<br>मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए।।सिखाए॥<br>बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं।।मोहीं॥<br>तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ।।तबहूँ॥<br>दो0दो०-संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।<br>भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान।।127।।बलवान॥१२७॥
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<br>राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई।।कोई॥<br>संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए।।सिधाए॥<br>एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना।।प्रबीना॥<br>छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा।।श्रुतिमाथा॥<br>हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता।।समेता॥<br>बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया।।दाया॥<br>काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे।।राखे॥<br>अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया।।जाया॥<br>दो0दो०-रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।<br>तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान।।128।।मान॥१२८॥
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<br>सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके।।जाके॥<br>ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा।।पीरा॥<br>नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना।।भगवाना॥<br>करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी।।भारी॥<br>बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी।।हितकारी॥<br>मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मै सोई।।सोई॥<br>तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई।।अधिकाई॥<br>श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी।।केरी॥<br>दो0दो०-बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।<br>श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार।।129।।प्रकार॥१२९॥
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<br>बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी।।तनुधारी॥<br>तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा।।समाजा॥<br>सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा।।निवासा॥<br>बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी।।निहारी॥<br>सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी।।बखानी॥<br>करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला।।महिपाला॥<br>मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ।।भयऊ॥<br>सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए।।बैठाए॥<br>दो0दो०-आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।<br>कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि।।130।।बिचारि॥१३०॥
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<br>देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी।।निहारी॥<br>लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने।।बखाने॥<br>जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई।।कोई॥<br>सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही।।जाही॥<br>लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे।।भाषे॥<br>सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं।।माहीं॥<br>करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी।।कुमारी॥<br>जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला।।बाला॥<br>दो0दो०-एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।<br>जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल।।131।।जयमाल॥१३१॥
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<br>हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई।।भाई॥<br>मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ।।होऊ॥<br>बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला।।कृपाला॥<br>प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने।।हरषाने॥<br>अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई।।सहाई॥<br>आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही।।ओही॥<br>जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा।।तोरा॥<br>निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला।।दीनदयाला॥<br>दो0दो०-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।<br>सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार।।132।।हमार॥१३२॥
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<br>कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी।।जोगी॥<br>एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ।।भयऊ॥<br>माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा।।निगूढ़ा॥<br>गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई।।बनाई॥<br>निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा।।समाजा॥<br>मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें।।भोरें॥<br>मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना।।बखाना॥<br>सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा।।नावा॥
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<br>दो0दो०-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।<br>बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ।।133।।तेउ॥१३३॥
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<br>जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई।।अधिकाई॥<br>तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ।।कोऊ॥<br>करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई।।सुंदरताई॥<br>रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी।।बिसेषी॥<br>मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ।।पाएँ॥<br>जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी।।सानी॥<br>काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा।।देखा॥<br>मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही।।तेही॥<br>दो0दो०-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।<br>देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल।।134।।जयमाल॥१३४॥
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<br>जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि न बिलोकी भूली।।भूली॥<br>पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं।।मुसकाहीं॥<br>धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला।।जयमाला॥<br>दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा।।निरासा॥<br>मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी।।गाँठी॥<br>तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई।।जाई॥<br>अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी।।निहारी॥<br>बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा।।गाढ़ा॥<br>दो0दो०-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।<br>हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ।।135।।कोउ॥१३५॥
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<br>पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा।।आवा॥<br>फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदी चले कमलापति पाहीं।।पाहीं॥<br>देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई।।कराई॥<br>बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी।।राजकुमारी॥<br>बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं।।नाईं॥<br>सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा।।बोधा॥<br>पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी।।बिसेषी॥<br>मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु।।करायहु॥<br>दो0दो०-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।<br>स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु।।136।।ब्यवहारु॥१३६॥
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<br>परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई।।सोई॥<br>भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू।।धरहू॥<br>डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू।।उछाहू॥<br>करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा।।साधा॥<br>भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा।।कीन्हा॥<br>बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा।।एहा॥<br>कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी।।तुम्हारी॥<br>मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी।।दुखारी॥<br>दो0दो०-श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।<br>निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि।।137।।लीन्हि॥१३७॥
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<br>जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी।।राजकुमारी॥<br>तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना।।हरना॥<br>मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला।।दीनदयाला॥<br>मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे।।मेरे॥<br>जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा।।बिश्रामा॥<br>कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें।।भोरें॥<br>जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी।।हमारी॥<br>अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई।।निअराई॥<br>दो0दो०-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान।।अंतरधान॥<br>सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान।।138।।गान॥१३८॥
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<br>हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी।।बिसेषी॥<br>अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए।।सुनाए॥<br>हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया।।पाया॥<br>श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला।।दीनदयाला॥<br>निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ।।होऊ॥
<br>भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ।
<br>समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा।।संसारा॥<br>चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई।।पाई॥<br>दो0दो०-एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।<br>सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार।।139।।भार॥१३९॥
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<br>एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे।।घनेरे॥<br>कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं।।करहीं॥<br>तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई।।बनाई॥<br>बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने।।सयाने॥<br>हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता।।संता॥<br>रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए।।गाए॥<br>यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी।।ग्यानी॥<br>प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी।।सेवत हितकारी॥सेवत सुलभ सकल दुख हारी।।हारी॥<br>सो0सो०-सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल।।प्रबल॥<br>अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि।।140।।पतिहि॥१४०॥<br>अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी।।बिस्तारी॥<br>जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा।।भूपा॥<br>जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा।।मुनिबेषा॥<br>जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी।।बौरानी॥<br>अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी।।हारी॥<br>लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा।।अनुसारा॥<br>भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी।।मुसकानी॥<br>लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू।।हेतू॥<br>दो0दो०-सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई।।लाई॥<br>राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ।।141।।सुहाइ॥१४१॥
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<br>स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा।।अनूपा॥<br>दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका।।लीका॥<br>नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू।।जासू॥<br>लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहि जाही।।जाही॥<br>देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी।।नारी॥<br>आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला।।कृपाला॥<br>सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्व बिचार निपुन भगवाना।।भगवाना॥<br>तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला।।प्रतिपाला॥<br>सो0सो०-होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।<br>हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु।।142।।बिनु॥१४२॥<br>बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा।।कीन्हा॥<br>तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता।।दाता॥<br>बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा।।राजा॥<br>पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा।।सरीरा॥<br>पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा।।नीरा॥<br>आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी।।जानी॥<br>जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए।।करवाए॥
<br>कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना ।
<br>दो0दो०-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।<br>बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग।।143।।लाग॥१४३॥
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<br>करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा।।सच्चिदानंदा॥<br>पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे।।त्यागे॥<br>उर अभिलाष निंरंतर होई। देखअ नयन परम प्रभु सोई।।सोई॥<br>अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी।।परमारथबादी॥<br>नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा।।अनूपा॥<br>संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना।।नाना॥<br>ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई।।गहई॥<br>जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजहि अभिलाषा।।अभिलाषा॥<br>दो0दो०-एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार।<br>संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार।।144।।अधार॥१४४॥
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<br>बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ।।दोऊ॥<br>बिधि हरि तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा।।बारा॥<br>मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए।।चलाए॥<br>अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा।।पीरा॥<br>प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी।।रानी॥<br>मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी।।सानी॥<br>मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर जब आई।।आई॥<br>ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए।।आए॥<br>दो0दो०-श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।<br>बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात।।145।।समात॥१४५॥
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<br>सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू।।रेनू॥<br>सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक।।नायक॥<br>जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू।।देहू॥<br>जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं।।कराहीं॥<br>जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा।।प्रसंसा॥<br>देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन।।मोचन॥<br>दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे।।पागे॥<br>भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना।।भगवाना॥<br>दो0दो०-नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।<br>लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम।।146।।काम॥१४६॥
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<br>सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा।।ग्रीवा॥<br>अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा।।हासा॥<br>नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की।।की॥<br>भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी।।दुतिकारी॥<br>कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा।।समाजा॥<br>उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला।।मनिजाला॥<br>केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ।।तेऊ॥<br>करि कर सरि सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा।।कोदंडा॥<br>दो0दो०-तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि।।तीनि॥<br>नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि।।147।।छीनि॥१४७॥
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<br>पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं।।माहीं॥<br>बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला।।जगमूला॥<br>जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी।।ब्रह्मानी॥<br>भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई।।सोई॥<br>छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी।।रोकी॥<br>चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा।।सतरूपा॥<br>हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी।।पानी॥<br>सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा।।करुनापुंजा॥<br>दो0दो०-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।<br>मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि।।148।।अनुमानि॥१४८॥
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<br>सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी।।बानी॥<br>नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे।।हमारे॥<br>एक लालसा बड़ि उर माही। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं।।नाहीं॥<br>तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं।।कृपनाईं॥<br>जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई।।सकुचाई॥<br>तासु प्रभा जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई।।होई॥<br>सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी।।स्वामी॥<br>सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही।।तोही॥<br>दो0दो०-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ।।सतिभाउ॥<br>चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ।।149।।दुराउ॥१४९॥
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<br>देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले।।बोले॥<br>आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई।।आई॥<br>सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे।।तोरे॥<br>जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा।।लागा॥<br>प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई।।सोहाई॥<br>तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी।।अंतरजामी॥<br>अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई।।सोई॥<br>जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं।।लहहीं॥<br>दो0दो०-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु।।सनेहु॥<br>सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु।।150।।देहु॥१५०॥
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<br>सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना।।बचना॥<br>जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं।।नाहीं॥
<br>मातु बिबेक अलोकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें ।
<br>बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनति प्रभु मोरी।।मोरी॥<br>सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ।।कोऊ॥<br>मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना।।अधीना॥<br>अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ।।कहेऊ॥<br>अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी।।रजधानी॥<br>सो0सो०-तहँ करि भोग बिसाल तात गउँ कछु काल पुनि।<br>होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत।।151।।सुत॥१५१॥<br>इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे।।तुम्हारे॥<br>अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता।।सुखदाता॥<br>जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी।।त्यागी॥<br>आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया।।माया॥<br>पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा।।हमारा॥<br>पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना।।भगवाना॥<br>दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला।।काला॥<br>समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा।।बासा॥<br>दो0दो०-यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु।<br>भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु।।152।।हेतु॥१५२॥
<br>मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम
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<br>सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी।।बखानी॥<br>बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू।।नरेसू॥<br>धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना।।बलवाना॥<br>तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा।।रनधीरा॥
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<br>राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही।।ताही॥<br>अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा।।संग्रामा॥<br>भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती।।प्रीती॥<br>जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा।।कीन्हा॥<br>दो0दो०-जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस।<br>प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस।।153।।लेस॥१५३॥
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<br>नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना।।समाना॥<br>सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा।।रनधीरा॥<br>सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा।।जुझारा॥<br>सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना।।निसाना॥<br>बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई।।बजाई॥<br>जँह तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआई।।बरिआई॥<br>सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें।।दीन्हें॥<br>सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला।।महिपाला॥<br>दो0दो०-स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु।<br>अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु।।154।।नरेसु॥१५४॥
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<br>भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई।।सुहाई॥<br>सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी।।नारी॥<br>सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती।।नीती॥<br>गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा।।सेवा॥<br>भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने।।माने॥<br>दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना। सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना।।पुराना॥<br>नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा।।बागा॥<br>बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए।।बनाए॥<br>दो0दो०-जँह लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग।<br>बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग।।155।।अनुराग॥१५५॥
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<br>हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना।।सुजाना॥<br>करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी।।ग्यानी॥<br>चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा।।समाजा॥<br>बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ।।भयऊ॥<br>फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू।।राहू॥<br>बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं।।नाहीं॥<br>कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई।।अधिकाई॥<br>घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ।।उठाएँ॥<br>दो0दो०-नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु।<br>चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु।।156।।निबाहु॥१५६॥
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<br>आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी।।भाजी॥<br>तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना।।बाना॥<br>तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा।।बचावा॥<br>प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ संग लागा।।लागा॥<br>गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू।।निबाहू॥<br>अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू।।नरेसू॥<br>कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा।।गभीरा॥<br>अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई।।भुलाई॥<br>दो0दो०-खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत।<br>खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत।।157।।अचेत॥१५७॥
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<br>फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा।।मुनिबेषा॥<br>जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई।।पराई॥<br>समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी।।अनुमानी॥<br>गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी।।अभिमानी॥<br>रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा।।साजा॥<br>तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा।।चीन्हा॥<br>राउ तृषित नहि सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना।।जाना॥<br>उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा।।नामा॥<br>दो0 दो० भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ।<br>मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ।।158।।हरषाइ॥१५८॥
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<br>गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ।।गयऊ॥<br>आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी।।बानी॥<br>को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें।।परहेलें॥<br>चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें।।मोरें॥<br>नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा।।मुनीसा॥<br>फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बडे भाग देखउँ पद आई।।आई॥<br>हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा।।होनिहारा॥<br>कह मुनि तात भयउ अँधियारा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा।।तुम्हारा॥<br>दो0दो०- निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान।<br>बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान।।159बिहान॥१५९(क)।।
<br>तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
<br>आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ।।159जाइ॥१५९(ख)।।
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<br>भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा।।महीसा॥<br>नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही।।सराही॥<br>पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई।।ढिठाई॥<br>मोहि मुनिस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी।।बखानी॥<br>तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुह्रद सो कपट सयाना।।सयाना॥<br>बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा।।काजा॥<br>समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती।।छाती॥<br>सरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना।।हरषाना॥
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<br>दो0दो०-कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत।<br>नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेति।।160।।निकेति॥१६०॥
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<br>कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना।।अभिमाना॥<br>सदा रहहि अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ।।बनाएँ॥<br>तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें।।केरें॥<br>तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा।।संदेहा॥<br>जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी।।स्वामी॥<br>सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी।।बिसेषी॥<br>सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई।।जनाई॥<br>सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला।।काला॥<br>दो0दो०-अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।<br>लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु।।161दाहु॥१६१(क)।।<br>सो0सो०-तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।<br>सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि।।161अहि॥१६१(ख)
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<br>तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं।।नाहीं॥<br>प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ।।रिझाएँ॥<br>तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें।।तोरें॥<br>अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही।।मोही॥<br>जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा।।बिस्वासा॥<br>देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी।।बगध्यानी॥<br>नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोले पुनि सिरु नाई।।नाई॥<br>कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी।।जानी॥<br>दो0दो०-आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि।<br>नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि।।162।।बहोरि॥१६२॥
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<br>जनि आचरुज करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं।।नाहीं॥<br>तपबल तें जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्नु भए परित्राता।।परित्राता॥<br>तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा।।संसारा॥<br>भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा।।लागा॥<br>करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका।।बिबेका॥<br>उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी।।बखानी॥<br>सुनि महिप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहत तब लयऊ।।लयऊ॥<br>कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही।।मोही॥<br>सो0सो०-सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप।<br>मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव।।163।।तव॥१६३॥<br>नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा।।नरेसा॥<br>गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा।।अकाजा॥<br>देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई।।निपुनाई॥<br>उपजि परि ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें।।तोरें॥<br>अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं।।माहीं॥<br>सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना।।नाना॥<br>कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें।।मोरें॥<br>प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी।।असोकी॥<br>दो0दो०-जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।<br>एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ।।164।।होउ॥१६४॥
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<br>कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ।।सोऊ॥<br>कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा।।महीसा॥<br>तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा।।रखवारा॥<br>जौं बिप्रन्ह सब करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा।।महेसा॥<br>चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई।।उठाई॥<br>बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहि कवनेहुँ काला।।काला॥<br>हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू।।नासू॥<br>तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्ब काल कल्याना।।कल्याना॥<br>दो0दो०-एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि।<br>मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि।।165।।खोरि॥१६५॥
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<br>तातें मै तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा।।अकाजा॥
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<br>छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी।।बानी॥<br>यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा।।भानुप्रतापा॥<br>आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं।।माहीं॥<br>सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा।।राखा॥<br>राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता।।त्राता॥<br>जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें।।हमारें॥<br>एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा।।घोरा॥<br>दो0दो०-होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ।<br>तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउँ।।166।।कोउँ॥१६६॥
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<br>सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं।।नाहीं॥<br>अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परंतु एक कठिनाई।।कठिनाई॥<br>मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई।।होई॥<br>आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ।।गयऊँ॥<br>जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू।।आजू॥<br>सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी।।बखानी॥<br>बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं।।धरहीं॥<br>जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू।।रेनू॥<br>दो0दो०- अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल।<br>मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल।।167।।दीनदयाल॥१६७॥
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<br>जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना।।प्रबीना॥<br>सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही।।मोही॥<br>अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा।।मोरा॥<br>जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ।।दुराऊ॥<br>जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई।।कोई॥<br>अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई।।अनुसरई॥<br>पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ।।सोऊ॥<br>जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू।।करेहू॥<br>दो0दो०-नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।<br>मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिंûकरिब जेवनार।।168।।जेवनार॥१६८॥
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<br>एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें।।तोरें॥<br>करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा।।देवा॥<br>और एक तोहि कहऊँ लखाऊ। मैं एहि बेष न आउब काऊ।।काऊ॥<br>तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया।।माया॥<br>तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना।।परवाना॥<br>मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा।।काजा॥<br>गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे।।तीजे॥<br>मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचेहउँ सोवतहि निकेता।।निकेता॥<br>दो0दो०-मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि।<br>जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि।।169।।तोहि॥१६९॥
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<br>सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी।।छलग्यानी॥<br>श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई।।अधिकाई॥<br>कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा।।भुलावा॥<br>परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा।।घनेरा॥<br>तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई।।दुखदाई॥<br>प्रथमहि भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे।।दुखारे॥<br>तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा।।बिचारा॥<br>जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ।।राऊ॥<br>दो0दो०-रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।<br>अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु।।170।।राहु॥१७०॥
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<br>तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी।।सुखारी॥<br>मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई।।पाई॥<br>अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा।।उपदेसा॥<br>परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई।।खोई॥<br>कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथे दिवस मिलब मैं आई।।आई॥<br>तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी।।अतिरोषी॥<br>भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता।।निकेता॥<br>नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई।।बनाई॥<br>दो0दो०-राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि।<br>लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि।।171।।भोरि॥१७१॥
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<br>आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा।।अनूपा॥<br>जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना।।माना॥<br>मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी।।रानी॥<br>कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं।।केहीं॥<br>गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा।।बधावा॥<br>उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा।।काजा॥<br>जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी।।लीनी॥<br>समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा।।समुझावा॥<br>दो0दो०-नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।<br>बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत।।172।।समेत॥१७२॥
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<br>उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई।।गाई॥<br>मायामय तेहिं कीन्ह रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई।।कोई॥<br>बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा।।साँधा॥<br>भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए।।बैठाए॥<br>परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला।।काला॥<br>बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू।।खाहू॥<br>भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू।।बिस्वासू॥<br>भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस आव मुख बानी।।बानी॥<br>दो0दो०-बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।<br>जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार।।173।।परिवार॥१७३॥
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<br>छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई।।समुदाई॥<br>ईस्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा।।परिवारा॥<br>संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ।।कोऊ॥<br>नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा।।अकासा॥<br>बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा।।कीन्हा॥<br>चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी।।खानी॥<br>तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा।।अपारा॥<br>सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई।।अकुलाई॥<br>दो0दो०-भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।<br>किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर।।174।।घोर॥१७४॥
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<br>अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए।।पाए॥<br>सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिचरत हंस काग किय जेहीं।।जेहीं॥<br>उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई।।जनाई॥<br>तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए।।धाए॥<br>घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होई लराई।।लराई॥<br>जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी।।धरनी॥<br>सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा।।असाँचा॥<br>रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई।।पाई॥<br>दो0दो०-भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम।<br>धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम।।।175।।दाम॥।१७५॥
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<br>काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा।।समाजा॥<br>दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा।।बरिबंडा॥<br>भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा।।बलधामा॥<br>सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू।।तासू॥<br>नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना।।निधाना॥<br>रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे।।घनेरे॥<br>कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका।।बिबेका॥<br>कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी।।परितापी॥<br>दो0दो०-उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।<br>तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप।।176।।अघरूप॥१७६॥
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<br>कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई।।जाई॥<br>गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता।।ताता॥
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<br>करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा।।जगदीसा॥<br>हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें।।बारें॥<br>एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा।।दीन्हा॥<br>पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ।।भयऊ॥<br>जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू।।संसारू॥<br>सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी।।केरी॥<br>दो0दो०-गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।<br>तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु।।177।।अनुरागु॥१७७॥
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<br>तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए।।आए॥<br>मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा।।ललामा॥<br>सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी।।जानी॥<br>हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई।।जाई॥<br>गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी।।भारी॥<br>सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन अपारा।।अपारा॥<br>भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा।।सक्रनिवासा॥<br>तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका।।लंका॥<br>दो0दो०-खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव।<br>कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव।।178बनाव॥१७८(क)।।
<br>हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ।
<br>सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ।।178सोइ॥१७८(ख)।।
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<br>रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे।।संघारे॥<br>अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे।।केरे॥<br>दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई।।जाई॥<br>देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई।।पराई॥<br>फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा।।बिसेषा॥<br>सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी।।रजधानी॥<br>जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे।।कीन्हे॥<br>एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा।।आवा॥<br>दो0दो०-कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।<br>मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ।।179।।पाइ॥१७९॥
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<br>सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई।।बड़ाई॥<br>नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई।।अधिकाई॥<br>अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता।।जाता॥<br>करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा।।त्रासा॥<br>जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई।।होई॥<br>समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना।।बलवाना॥<br>बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू।।जासू॥<br>जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई।।होई॥<br>दो0दो०-कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।<br>एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय।।180।।निकाय॥१८०॥
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<br>कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया।।दाया॥<br>दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा।।परिवारा॥<br>सुत समूह जन परिजन नाती। गे को पार निसाचर जाती।।जाती॥<br>सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी।।सानी॥
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<br>सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा।।बरूथा॥<br>ते सनमुख नहिं करही लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई।।पराई॥<br>तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई।।सोई॥<br>द्विजभोजन मख होम सराधा।।सब सराधा॥सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा।।बाधा॥<br>दो0दो०-छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।<br>तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ।।181।।अपनाइ॥१८१॥
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<br>मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा।।बढ़ावा॥
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<br>जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना।।अभिमाना॥<br>तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी।।काँधी॥<br>एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही।।लीन्ही॥<br>चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी।।रवनी॥<br>रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा।।खोहा॥<br>दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए।।पाए॥<br>पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी।।पचारी॥<br>रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा।।पावा॥<br>रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी।।अधिकारी॥<br>किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा।।लागा॥<br>ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी।।नारी॥<br>आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता।।बिनीता॥<br>दो0दो०-भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।<br>मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र।।182मंत्र॥१८२(ख)।।
<br>देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि।
<br>जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि।।182ख।।नारि॥१८२ख॥
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<br>इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ।।रहेऊ॥<br>प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा।।कीन्हा॥<br>देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी।।परितापी॥<br>करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया।।माया॥<br>जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला।।प्रतिकूला॥<br>जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं।।लगावहिं॥<br>सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई।।कोई॥<br>नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना।।पुराना॥<br>छं0छं०-जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।<br>आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा।।खीसा॥
<br>अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना।
<br>तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना।।पुराना॥<br>सो0सो०-बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।<br>हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति।।183।।मिति॥१८३॥
<br>मासपारायण, छठा विश्राम
<br>बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा।।परदारा॥<br>मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा।।सेवा॥<br>जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी।।प्रानी॥<br>अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी।।अकुलानी॥<br>गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही।।परद्रोही॥<br>सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता।।भीता॥<br>धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी।।झारी॥<br>निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई।।होई॥<br>छं0छं०-सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।<br>सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका।।सोका॥
<br>ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।
<br>जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई।।सहाई॥<br>सो0सो०-धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु।<br>जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति।।184।।बिपति॥१८४॥<br>बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा।।पुकारा॥<br>पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई।।सोई॥<br>जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती।।रीती॥<br>तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ।।कहेऊँ॥<br>हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।।जाना॥<br>देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं।।नाहीं॥<br>अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी।।आगी॥<br>मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना।।बखाना॥<br>दो0दो०-सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।<br>अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर।।185।।मतिधीर॥१८५॥
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<br>छं0छं०-जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।<br>गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता।।कंता॥
<br>
<br>पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
<br>जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई।।सोई॥
<br>जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
<br>अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा।।मुकुंदा॥
<br>जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा।
<br>निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा।।सच्चिदानंदा॥
<br>जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
<br>सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा।।पूजा॥
<br>जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
<br>मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा।।जूथा॥
<br>सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना।
<br>जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना।।श्रीभगवाना॥
<br>भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
<br>मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा।।कंजा॥<br>दो0दो०-जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह।<br>गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह।।186।।संदेह॥१८६॥
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<br>जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा।।बेसा॥<br>अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा।।उदारा॥<br>कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा।।दीन्हा॥<br>ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा।।नरभूपा॥<br>तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई।।भाई॥<br>नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ।।अवतरिहउँ॥<br>हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई।।समुदाई॥<br>गगन ब्रह्मबानी सुनी काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना।।जुड़ाना॥<br>तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा।।आवा॥<br>दो0दो०-निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।<br>बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ।।187।।जाइ॥१८७॥
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<br>गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा ।
<br>जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा।।कीन्हा॥<br>बनचर देह धरि छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं।।पाहीं॥<br>गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा।।मतिधीरा॥<br>गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी।।रूरी॥<br>यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा।।राखा॥<br>अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ।।नाऊँ॥<br>धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति सारँगपानी।।सारँगपानी॥<br>दो0दो०-कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।<br>पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत।।188।।बिनीत॥१८८॥
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<br>एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं।।नाहीं॥<br>गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला।।बिसाला॥<br>निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ।।समुझायउ॥<br>धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी।।हारी॥<br>सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा।।करावा॥<br>भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें।।लीन्हें॥<br>जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा।।तुम्हारा॥<br>यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई।।बनाई॥<br>दो0दो०-तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ।।समुझाइ॥<br>परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ।।189।।समाइ॥१८९॥
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<br>तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आई।।आई॥<br>अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा।।कीन्हा॥<br>कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ।।भयऊ॥<br>कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि।।करि॥<br>एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी।।भारी॥<br>जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए।।छाए॥<br>मंदिर महँ सब राजहिं रानी। सोभा सील तेज की खानीं।।खानीं॥<br>सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ।।भयऊ॥<br>दो0दो०-जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।<br>चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल।।190।।सुखमूल॥१९०॥
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<br>नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता।।हरिप्रीता॥<br>मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा।।बिश्रामा॥<br>सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ।।चाऊ॥<br>बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा।।सरिताऽमृतधारा॥<br>सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना।।बिमाना॥<br>गगन बिमल सकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा।।बरूथा॥<br>बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी।।बाजी॥<br>अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा।।सेवा॥<br>दो0दो०-सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।<br>जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम।।191।।बिश्राम॥१९१॥
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<br>छं0छं०-भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।<br>हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी।।बिचारी॥
<br>लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।
<br>भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी।।खरारी॥
<br>कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
<br>माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता।।भनंता॥
<br>करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
<br>सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता।।श्रीकंता॥
<br>ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
<br>मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै।।रहै॥
<br>उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
<br>कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै।।लहै॥
<br>माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा।
<br>कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा।।अनूपा॥
<br>सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
<br>यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा।।भवकूपा॥<br>दो0दो०-बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।<br>निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार।।192।।पार॥१९२॥
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<br>सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आई सब रानी।।रानी॥<br>हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी।।पुरबासी॥<br>दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानंद समाना।।समाना॥<br>परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठत करत मति धीरा।।धीरा॥<br>जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई।।सोई॥<br>परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा।।बाजा॥<br>गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा।।नृपद्वारा॥<br>अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई।।सिराई॥<br>दो0दो०-नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।<br>हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह।।193।।दीन्ह॥१९३॥
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<br>ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा।।बनावा॥<br>सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई।।लोई॥<br>बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाई। सहज संगार किएँ उठि धाई।।धाई॥<br>कनक कलस मंगल धरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा।।दुआरा॥<br>करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं।।परहीं॥<br>मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक।।रघुनायक॥<br>सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू।।ताहू॥<br>मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा।।बीचा॥<br>दो0दो०-गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।<br>हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद।।194।।बृंद॥१९४॥
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<br>कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ।।ओऊ॥<br>वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा।।अहिराजा॥<br>अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती।।राती॥<br>देखि भानू जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी।।अनुमानी॥<br>अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अभीर मनहुँ अरुनारी।।अरुनारी॥<br>मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा।।उदारा॥<br>भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मूखर समयँ जनु सानी।।सानी॥<br>कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना।।जाना॥<br>दो0दो०-मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।<br>रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ।।195।।होइ॥१९५॥
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<br>यह रहस्य काहू नहिं जाना। दिन मनि चले करत गुनगाना।।गुनगाना॥<br>देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा।।भागा॥<br>औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी।।तोरी॥<br>काक भुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ।।कोऊ॥<br>परमानंद प्रेमसुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले।।भूले॥<br>यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई।।होई॥<br>तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा।।भावा॥<br>गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा।।चीरा॥<br>दो0दो०-मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस।<br>सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस।।196।।ईस॥१९६॥
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<br>कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती।।राती॥<br>नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी।।ग्यानी॥<br>करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा।।राखा॥<br>इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा।।अनुरूपा॥<br>जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी।।सुपासी॥<br>सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा।।बिश्रामा॥<br>बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।।होई॥<br>जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा।।प्रकासा॥<br>दो0दो०-लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।<br>गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार।।197।।उदार॥१९७॥
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<br>धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी।।चारी॥<br>मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि तेहिं सुख माना।।माना॥<br>बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी।।मानी॥<br>भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई।।बड़ाई॥<br>स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।तोरी॥<br>चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा।।रामा॥<br>हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा।।हासा॥<br>कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना।।ललना॥<br>दो0दो०-ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।<br>सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद।।198।।गोद॥१९८॥
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<br>काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा।।गंभीरा॥<br>अरुन चरन पकंज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती।।मोती॥<br>रेख कुलिस धवज अंकुर सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे।।मोहे॥<br>कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहि देखा।।देखा॥<br>भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी।।रूरी॥<br>उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा।।लोभा॥<br>कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई।।छाई॥<br>दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे।।पारे॥<br>सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला।।बोला॥<br>चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे।।सँवारे॥<br>पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई।।भाई॥<br>रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहि देखा।।देखा॥<br>दो0दो०-सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत।<br>दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत।।199।।पुनीत॥१९९॥
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<br>एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता।।सुखदाता॥<br>जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी।।भवानी॥<br>रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी।।छोरी॥<br>जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे।।भाखे॥<br>भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही।।काही॥<br>मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई।।रघुराई॥<br>एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा।।दीन्हा॥<br>लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घालि झुलावै।।झुलावै॥<br>दो0दो०-प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।<br>सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।200।।गान॥२००॥
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<br>एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए।।पौढ़ाए॥
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<br>निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना।।अस्नाना॥<br>करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा।।बनावा॥<br>बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई।।जाई॥<br>गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता।।सूता॥<br>बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई।।होई॥<br>इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा।।बिसेषा॥<br>देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी।।मुसुकानी॥<br>दो0दो०-देखरावा मातहि निज अदभुत रुप अखंड।<br>रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड।। 201।।ब्रह्मंड॥ २०१॥
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<br>अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन।।कानन॥<br>काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ।।काऊ॥<br>देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी।।ठाढ़ी॥<br>देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही।।ताही॥<br>तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा।।नावा॥<br>बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी।।खरारी॥<br>अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना।।जाना॥<br>हरि जननि बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई।।माई॥<br>दो0दो०-बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि।।जोरि॥<br>अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि।। 202।।तोरि॥ २०२॥
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<br>बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा।।दीन्हा॥<br>कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई।।सुखदाई॥<br>चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई।।पाई॥<br>परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा।।सुकुमारा॥<br>मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई।।सोई॥<br>भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा।।समाजा॥<br>कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई।।पराई॥<br>निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा।।धावा॥<br>धूरस धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए।।बैठाए॥<br>दो0दो०-भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।<br>भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ।।203।।लपटाइ॥२०३॥
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<br>बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए।।गाए॥<br>जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता।।बिधाता॥<br>भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता।।माता॥<br>गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई।।आई॥<br>जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी।।भारी॥<br>बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला।।नृपलीला॥<br>करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा।।मोहा॥<br>जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई।।लुगाई॥<br>दो0दो०- कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।<br>प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल।।204।।कृपाल॥२०४॥
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<br>बंधु सखा संग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई।।जाई॥<br>पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी।।आनी॥<br>जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे।।सिधारे॥<br>अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं।।अनुसरहीं॥<br>जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा।।संजोगा॥<br>बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई।।समुझाई॥<br>प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा।।माथा॥<br>आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा।।राजा॥<br>दो0दो०-ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।<br>भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप।।205।।अनूप॥२०५॥
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<br>यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई।।लाई॥<br>बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहि बिपिन सुभ आश्रम जानी।।जानी॥<br>जहँ जप जग्य मुनि करही। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं।।डरहीं॥<br>देखत जग्य निसाचर धावहि। करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिं।।पावहिं॥<br>गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहि न निसिचर पापी।।पापी॥<br>तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा।।भारा॥<br>एहुँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौ दोउ भाई।।भाई॥<br>ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मै देखब भरि नयना।।नयना॥<br>दो0दो०-बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।<br>करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार।।206।।दरबार॥२०६॥
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<br>मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयऊ लै बिप्र समाजा।।समाजा॥<br>करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी।।आनी॥<br>चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा।।दूजा॥<br>बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा।।पावा॥<br>पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी।।बिसारी॥<br>भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा।।लोभा॥<br>तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ।।काऊ॥<br>केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा।।बारा॥<br>असुर समूह सतावहिं मोही। मै जाचन आयउँ नृप तोही।।तोही॥<br>अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा।।सनाथा॥<br>दो0दो०-देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।<br>धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान।।207।।कल्यान॥२०७॥
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<br>सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी।।कुमुलानी॥<br>चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी।।बिचारी॥<br>मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा।।सहरोसा॥<br>देह प्रान तें प्रिय कछु नाही। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माही।।माही॥<br>सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाई।।गोसाई॥<br>कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा।।किसोरा॥<br>सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी।।ग्यानी॥<br>तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा।।पावा॥<br>अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए।।सिखाए॥<br>मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ।।कोऊ॥<br>दो0दो०-सौंपे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस।<br>जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस।।208सीस॥२०८(क)।।<br>सो0सो०-पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।।हरन॥<br>कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन।।208करन॥२०८(ख)
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<br>अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला।।तमाला॥<br>कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा।।हाथा॥<br>स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्बामित्र महानिधि पाई।।पाई॥<br>प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना। मोहि निति पिता तजेहु भगवाना।।भगवाना॥<br>चले जात मुनि दीन्हि दिखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई।।धाई॥<br>एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।।दीन्हा॥<br>तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही।।दीन्ही॥<br>जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा।।प्रकासा॥<br>दो0दो०-आयुष सब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।<br>कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि।।209।।जानि॥२०९॥
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<br>प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई।।जाई॥<br>होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी।।रखवारी॥<br>सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही।।मुनिद्रोही॥<br>बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा।।पारा॥<br>पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा।।सँघारा॥<br>मारि असुर द्विज निर्मयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी।।झारी॥<br>तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया।।दाया॥<br>भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना।।जाना॥<br>तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई।।जाई॥<br>धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा।।साथा॥<br>आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं।।नाहीं॥<br>पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी।।बिसेषी॥<br>दो0दो०-गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।<br>चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर।।210।।रघुबीर॥२१०॥
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<br>छं0छं०-परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।<br>देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही।।रही॥
<br>अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
<br>अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही।।बही॥
<br>धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।
<br>अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई।।रघुराई॥
<br>मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
<br>राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई।।आई॥
<br>मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
<br>देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना।।जाना॥
<br>बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
<br>पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना।।पाना॥
<br>जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
<br>सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी।।हरी॥
<br>एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
<br>जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी।।भरी॥<br>दो0दो०-अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।<br>तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल।।211।।जंजाल॥२११॥
<br>मासपारायण, सातवाँ विश्राम
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<br>चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा।।गंगा॥<br>गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई।।आई॥<br>तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए।।पाए॥<br>हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया।।निअराया॥<br>पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी।।बिसेषी॥<br>बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना।।सोपाना॥<br>गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा।।बिहंगा॥<br>बरन बरन बिकसे बन जाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता।।सुखदाता॥<br>दो0दो०-सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।<br>फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास।।212।।पास॥२१२॥
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<br>बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई।।लोभाई॥<br>चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी।।सँवारी॥<br>धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठ सकल बस्तु लै नाना।।नाना॥<br>चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई।।सिंचाई॥<br>मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें।।चितेरें॥<br>पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता।।गुनवंता॥<br>अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू।।बिलासू॥<br>होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी।।रोकी॥<br>दो0दो०-धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।<br>सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति।।213।।जाति॥२१३॥
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<br>सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा।।भाटा॥<br>बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रथ संकुल सब काला।।काला॥<br>सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे।।केरे॥<br>पुर बाहेर सर सारित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा।।महीपा॥<br>देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई।।सुहाई॥<br>कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना।।सुजाना॥<br>भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनिबृंद समेता।।समेता॥<br>बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए।।पाए॥<br>दो0दो०-संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।<br>चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति।।214।।भाँति॥२१४॥
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<br>कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा।।मुनिनाथा॥<br>बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे।।अनंदे॥<br>कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा।।बैठारा॥<br>तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई।।फुलवाई॥<br>स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा।।चोरा॥<br>उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए।।बैठाए॥<br>भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता।।गाता॥<br>मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी।।बिसेषी॥<br>दो0दो०-प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।<br>बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर।।215।।गभीर॥२१५॥
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<br>कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक।।पालक॥<br>ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा।।आवा॥<br>सहज बिरागरुप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा।।चकोरा॥<br>ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ।।दुराऊ॥<br>इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा।।त्यागा॥<br>कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका।।अलीका॥<br>ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी।।बानी॥<br>रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए।।पठाए॥<br>दो0दो०-रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम।<br>मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम।।216।।संग्राम॥२१६॥
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<br>मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्राभाऊ।।प्राभाऊ॥<br>सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता।।दाता॥<br>इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि।।सुहावनि॥<br>सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू।।सनेहू॥<br>पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू।।उछाहू॥<br>म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू।।अवनीसू॥<br>सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला।।भुआला॥<br>करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई।।कराई॥<br>दो0दो०-रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।<br>बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु।।217।।जामु॥२१७॥
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<br>लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी।।देखी॥<br>प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं।।मुसुकाहीं॥<br>राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिंयँ हुलसानी।।हुलसानी॥<br>परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई।।पाई॥<br>नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं।।कहहीं॥<br>जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौ।।आवौ॥<br>सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती।।नीती॥<br>धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता।।सुखदाता॥<br>दो0दो०-जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।<br>करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ।।218।।देखाइ॥२१८॥
<br>मासपारायण, आठवाँ विश्राम
<br>नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम
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<br>मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता।।दाता॥<br>बालक बृंदि देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा।।लोभा॥<br>पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा।।हाथा॥<br>तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी।।जोरी॥<br>केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला।।माला॥<br>सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन।।मोचन॥<br>कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं।।लेहीं॥<br>चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी।।चाँकी॥<br>दो0दो०-रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।<br>नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस।।219।।सुदेस॥२१९॥
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<br>देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए।।पाए॥<br>धाए धाम काम सब त्यागी। मनहु रंक निधि लूटन लागी।।लागी॥<br>निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई।।पाई॥<br>जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं।।अनुरागीं॥<br>कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती।।जीती॥<br>सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं।।नाहीं॥<br>बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी।।पुरारी॥<br>अपर देउ अस कोउ न आही। यह छबि सखि पटतरिअ जाही।।जाही॥<br>दो0दो०-बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख घाम ।<br>अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम।।220।।काम॥२२०॥
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<br>कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी।।निहारी॥<br>कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी।।सयानी॥<br>ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा।।जोटा॥<br>मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे।।मारे॥<br>स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन।।मोचन॥<br>कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी।।पानी॥<br>गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें।।पाछें॥<br>लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता।।माता॥<br>दो0दो०-बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।<br>आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि।।221।।नारि॥२२१॥
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<br>देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई।।अहई॥<br>जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू।।बिबाहू॥<br>कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने।।सनमाने॥<br>सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई।।भजई॥<br>कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता।।फलदाता॥<br>तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू।।संदेहू॥<br>जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू।।लोगू॥<br>सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें।।नातें॥<br>दो0दो०-नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।<br>यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि।।222।।भूरि॥२२२॥
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<br>बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबहीं का।।का॥<br>कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदुगात किसोरा।।किसोरा॥<br>सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी।।बानी॥<br>सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं।।अहहीं॥<br>परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी।।भूरी॥<br>सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें।।भोरें॥<br>जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी।।बिचारी॥<br>तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मुदु बानी।।बानी॥<br>दो0दो०-हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद।<br>जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद।।223।।परमानंद॥२२३॥
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<br>पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई।।बनाई॥<br>अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी।।सँवारी॥<br>चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बेठहिं महिपाला।।महिपाला॥<br>तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा।।बिलासा॥<br>कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई।।जाई॥<br>तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए।।बनाए॥<br>जहँ बैंठैं देखहिं सब नारी। जथा जोगु निज कुल अनुहारी।।अनुहारी॥<br>पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना।।रचना॥<br>दो0दो०-सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।<br>तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात।।224।।भ्रात॥२२४॥
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<br>सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने।।बखाने॥<br>निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई।।भाई॥<br>राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना।।बचना॥<br>लव निमेष महँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया।।माया॥<br>भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला।।मखसाला॥<br>कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं।।माहीं॥<br>जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई।।सोई॥<br>कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआई।।बरिआई॥<br>दो0दो०-सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।<br>गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ।।225।।पाइ॥२२५॥
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<br>निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा।।कीन्हा॥<br>कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी।।सिरानी॥<br>मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई।।भाई॥<br>जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी।।बिरागी॥<br>तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते।।प्रीते॥<br>बारबार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही।।कीन्ही॥<br>चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ।।पाएँ॥<br>पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता।।जलजाता॥<br>दो0दो०-उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान।।कान॥<br>गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान।।226।।सुजान॥२२६॥
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<br>सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए।।नाए॥<br>समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई।।भाई॥<br>भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई।।लोभाई॥<br>लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना।।बिताना॥<br>नव पल्लव फल सुमान सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए।।लजाए॥<br>चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा।।मोरा॥<br>मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा।।बनावा॥<br>बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा।।भृंगा॥<br>दो0दो०-बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत।<br>परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत।।227।।देत॥२२७॥
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<br>चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालिगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन।।मन॥<br>तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई।।पठाई॥<br>संग सखीं सब सुभग सयानी। गावहिं गीत मनोहर बानी।।बानी॥<br>सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा।।मोहा॥<br>मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता।।निकेता॥<br>पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा।।मागा॥<br>एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई।।फुलवाई॥<br>तेहि दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई।।आई॥<br>दो0दो०-तासु दसा देखि सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।<br>कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन।।228।।बैन॥२२८॥
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<br>देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए।।सुहाए॥<br>स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी।।बानी॥<br>सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी।।जानी॥<br>एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली।।काली॥<br>जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्ह स्वबस नगर नर नारी।।नारी॥<br>बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू।।जोगू॥<br>तासु वचन अति सियहि सुहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने।।अकुलाने॥<br>चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई।।कोई॥<br>दो0दो०-सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।।पुनीत॥<br>चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत।।229।।सभीत॥२२९॥
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<br>कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि।।गुनि॥<br>मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही।।मनसा दीन्ही॥मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही।।कीन्ही॥<br>अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा।।चकोरा॥<br>भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल।।दिगंचल॥<br>देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा।।आवा॥<br>जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई।।देखाई॥<br>सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई।।बरई॥<br>सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी।।बिदेहकुमारी॥<br>दो0दो०-सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि।<br>बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि।।230।।अनुहारि॥२३०॥
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<br>तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई।।होई॥<br>पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरइ फुलवाई।।फुलवाई॥<br>जासु बिलोकि अलोकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा।।छोभा॥<br>सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता।।भ्राता॥<br>रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ।।काऊ॥<br>मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी।।हेरी॥<br>जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी।।डीठी॥<br>मंगन लहहि न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं।।माहीं॥<br>दो0दो०-करत बतकहि अनुज सन मन सिय रूप लोभान।<br>मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान।।231।।पान॥२३१॥
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<br>चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता।।चिंता॥<br>जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी।।श्रेनी॥<br>लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए।।सुहाए॥<br>देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने।।पहिचाने॥<br>थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें।।निमेषें॥<br>अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी।।चकोरी॥<br>लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी।।सयानी॥<br>जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी।।सकुचानी॥<br>दो0दो०-लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।<br>निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ।।232।।बिलगाइ॥२३२॥
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