<br>जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥१०७॥
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<br>cau0चौ०-जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
<br>तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥
<br>जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
<br>दो०-जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
<br>देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥१०८॥
<br>–*–*–<br>चौ०-जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कबहु कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
<br>अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥
<br>मैं बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥
<br>तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
<br>कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥
<br>दो०-बंदउ बंदउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
<br>बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥१०९॥
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<br>दो०-मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
<br>रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥१११॥
<br>–*–*–<br>चौ०-झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
<br>जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥
<br>बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
<br>दो०-रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
<br>सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥११२॥
<br>–*–*–<br>चौ०-तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
<br>जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥
<br>नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
<br>दो०-रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
<br>सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥११३॥
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<br>चौ०-रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥
<br>रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥
<br>राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
<br>हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥
<br>बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
<br>जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन् तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना॥
<br>सो०-अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
<br>सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥११५॥
<br><br>चौ०-सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
<br>अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
<br>जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
<br>दो०-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ॥
<br>रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥११६॥
<br>–*–*–<br>चौ०-निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥
<br>जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी॥
<br>चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
<br>सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥
<br>जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
<br>जासु सत्यता तें जड जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥
<br>दो०-रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि।
<br>जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥११७॥
<br>–*–*–<br>चौ०-एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
<br>जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥
<br>जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥