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गणपति विसर्जन / अनूप सेठी

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|रचनाकार=अनूप सेठी
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1.

किसी महासमर के बाद का विकट सन्नाटा है

आसमान का काला मनहूस तरपाल
समुद्र पर गिरा हुआ
वैसा ही गाढ़ा चीकट पानी
भीतर तक छुपता चला गया
रिसती हुई सीली रेत तट पर अकेली
क्षत विक्षत अक्षौहिणी को धारे हुए

कल आधी रात तक थे गणपति अनादि अनंत जीवंत
मद मस्त विदा करके गया जनता जनार्दन
उसके बाद कैसी हुई विसर्जन की मुठभेड़
आसमान पाताल एक हो गए
रह गए देवताओं के कहीं धड़ कहीं मुंड
रेत में धँसे हुए
इन मिट्टी के ढेलों में नहीं रही घुल जाने की भी ताकत

रहे जो हर साल की तरह ग्यारह दिन दुनिया भर को बिसरा के साथ
सो रहे हैं लौट के घरों में निश्चिंत नीम बेहोशी की नींद

किसी महासमर के बाद का विकट सन्नाटा है

धीरे धीरे सिर उठाने लगा है आसमान
उसके फटे हुए पग्गड़ में
सूरज चुभोने लगा है सलेटी सिलाइयां

निढाल पड़े सागर के मुंह से निकला बहुत सारा झाग
बहुत हिम्मत करके फैलाई उसने बांह
मिट जाएँ तट के अवशेष
दुनिया देख ले उससे पहले
समरांगण बन जाए फिर से तफरीह का मैदान।

'''2.'''
साँस रोक कर चुपचाप लेटी है सड़क
उसकी बगल में बहुत से लोग बेसुध सोए पड़े हैं दूर-दूर तक
भोर का कलरव शुरू हो गया है
सड़क नींद में खलल नहीं डालना चाहती

गणपति विसर्जन के मेले में मीलों लंबी सड़क पर
देर रात तक बनाए इन जुझारुओं ने
शुध्द हिंदुस्तानी खिलौने और पकवान
और बेचकर सो गए वहीं
बारिश शुरू हुई तो ओढ़ लीं प्लास्टिक की चादरें
जिन पर सजीं थीं कल दुकानें

गणपति भी घड़े गए जितने इस बरस
ढोल तासों की पगलाई ताल पर
भक्तों ने भी उढ़ेल डाले उन पर साल भर के सारे दुख संताप

जब डाले गए गणपति समुद्र की गोद में
दुख और क्रोध और अधूरेपन तमाम
उतर गए अरब सागर में
घुल गए नमक की तरह हिंद महासागर में
इतना घना और विशाल था सामान
सारी रात लगा दी सागर ने समेटने में

उछल उछल कर बिखरा सड़क पर हाहाकार पसीने से भीगा हुआ
टनों अबीर और शोर घुमड़ता रहा घंटों चंदोवे की तरह
सड़क में धीरज सागर से कम नहीं
सोख लिया सब रात ही रात में

दूध और डबलरोटी की गाड़ियाँ घूँ-घूँ गुज़रने लगी हैं
सड़क कुनमुना के सीधी हो गई है
बसें भी चल पड़ेंगी ज़रा देर में
फिर सिग्नल आँखें खोलेंगे
तब तक शुरू हो चुकी होगी सड़क के कुनबे की रेलमपेल।
(1998)

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