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चौ०-<br>देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥
<br>लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥बखाने॥१॥
<br>जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥
<br>सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥जाही॥२॥
<br>लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥
<br>सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥माहीं॥३॥
<br>करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥
<br>जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥बाला॥४॥
<br>दो०-एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
<br>जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥१३१॥
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