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<poem>अग्नि के काष्ठखोजती माँ,बीनती नित्य सूखे डंठलसूखी टहनी, रुखी डालेंघूमती सभ्यता के जंगलवह मेरी माँखोजती अग्नि के अधिष्ठान मुझमें दुविधा,पर, माँ की आज्ञा से समिधाएकत्र कर रहा हूँमैं हर टहनी में डंठल मेंएक-एक स्वप्न देखता हुआपहचान रहा प्रत्येकजतन से जमा रहाटोकरी उठा, मैं चला जा रहा हूँ टोकरी उठाना...चलन नहींवह फ़ैशन के विपरीत –इसलिए निगाहें बचा-बचाआड़े-तिरछे चलता हूँ मैंसंकुचित और भयभीत अजीब सी टोकरीकि उसमें प्राणवान् मायागहरी कीमियासहज उभरी फैली सँवरीडंठल-टहनी की कठिन साँवली रेखाएँआपस में लग यों गुंथ जातींमानो अक्षर नवसाक्षर खेतिहर के-सेवे बेढब वाक्य फुसफुसातेटोकरी विवर में से स्वर आते दबे-दबेमानो कलरव गा उठता हो धीमे-धीमेअथवा मनोज्ञ शत रंग-बिरंगी बिहंग गाते हों</poem> <br/><br/> *[[एक अंतर्कथा / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध]]*[[एक अंतर्कथा / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध]]*[[एक अंतर्कथा / भाग 3 / गजानन माधव मुक्तिबोध]]*[[एक अंतर्कथा / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध]] * [[एक अंतर्कथा - 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध]]* [[एक अंतर्कथा - 3 / गजानन माधव मुक्तिबोध]]* [[एक अंतर्कथा - 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध]]
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