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|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
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<poem>
दुबली चम्पा
:जन संघर्षों में
::गदरायी,
खण्डर-मकान में फूल खिले, तल में बिखरे

जीवन संघर्षों में घुमड़े
::उमड़े चक्की के गीतों में
कल्याणमयी करुणाओं के

हिन्दुस्तानी सपने निखरे —

जिस सुर को सुन

कूएँ की सजल मुँडेर हिली

प्रातः कालीन हवाओं में ।
::सूरज का लाल-लाल चेहरा
डोला धरती की बाहों में,

आसक्ति भरा रवि का मुख वह ।

उसकी मेधाओं की ज्वालाएँ ऐसी फैलीं —

उस घास-भरे जंगल-पहाड़-बंजर में
:यों दावाग्नि लगी
मानो बूढ़ी दुनिया के सिर पर आग लगी

सिर जलता है, कन्धे जलते ।

यह अग्नि-विश्वजित् फैली है जिन लोगों की
:::रे नौजवान,
इतिहास बनानेवाला सिर करके ऊंचा

भौहों पर मेघों-जैसा
:विद्युत भार
:विचारों का लेकर
पृथ्वी की गति के साथ-साथ घूमते हुए

वे दिशा-काल वन वातावरण-पटल जैसे

चलते जन-जन के साथ

वे हैं आगे वे हैं पीछे ।

अगजाजी खोहों और खदानों के

तल में
:ज्यों रत्न-द्वीप जलते
त्यों जन-जन के अनपहचाने अन्तस्तल में

जीवन के सत्य-दीप पलते !!
</poem>
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