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{{KKRachna
|रचनाकार=मृदुल कीर्ति
|संग्रह = अष्टावक्र गीता / मृदुल कीर्ति
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'''अष्टावक्र उवाचः'''
मूढ़ की निवृति भी, प्रवृति रूपी है तथा,
ज्ञानियों की प्रवृति है, रूप निवृति की यथा ----६१

मूढ़ का वैराग्य तो, गृह आदि में दृष्टव्य है,
देह में लय राग धीर का, ब्रह्म ही गंतव्य है.----६२

भावना या अभावना में, मूढ़ जन आसक्त हैं,
किंतु ज्ञानी जन की दृष्टि आत्मा अनुरक्त है.-----६३

करे बालवत व्यवहार ज्ञानी, कामनाओं से परे,
प्रारब्ध वश रत कर्म, रत न भावनाओं को करे.----६४

देखता, स्पर्श, सुनता, सूंघता खाता हुआ,
आत्म ज्ञानी, धन्य सम मन, निस्तरण पाता हुआ.-----६५

सर्वदा आकाश वत ज्ञानी, सदा निर्विकार है,
आभास, साधन, साध्य, और उसका कहाँ संसार है.-----६६

जो समाधि सहज में, और पूर्णानन्द स्वरुप में,
सतत ही करता रमण, जय जयति अपने ही रूप में.-------६७

निराकांक्षी तत्व ज्ञानी, मोक्ष में और भोग में,
राग द्वेष विहीन हर पल ब्रह्म के संयोग में.------६८

भिन्नता अज्ञान है, जो द्वैत का आधार है,
जो आत्मबोध प्रबुद्ध, उसका छूटता संसार है.----६९

विश्व मात्र प्रपंच ज्ञानी के लिए कुछ भी नहीं,
चैतन्य आत्मा अनुभवी को, तुच्छ सारी भी मही .---७०
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