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14:01, 4 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत
|संग्रह=घर एक यात्रा है / श्रीनिवास श्रीकांत
}}
<Poem>
भीड़ की आतुर आँखों में
उलाला कैसे आये ?
भीड़ तो आखिर भीड़ है
तरह-तरह के मजमें लगाकर
जनवासों में
मदारी दिखाते हैं
तरह तरह के खेल
और उनकी डुगडुगी पर
झूम-झूम उठता है
भीड़ का दिल
ससूरज उगता है तो समेट ले जाते हैं
धूप की फसलें कोई और ही
आसमान
पानी
हवा
सब पर है उनका ही अधिकार
वे जैसे चाहें
घुमाएं प्रजा की नियतियों को
गर्क होती हैं पीढ़ियाँ
काल के हिमनद में
कभी-कभी वह टूटता है
एकाएक हो जाता
रसातल की अन्तर्धारा में विलीन
छा जाता है भय
सन्नाटा सभी ओर
अपने अदृश्य हाथों
बुहार कर ले जाता है
सब के दिनों के सुख
रातों के दुख
साजिश क्या हो रही है
कहाँ ?
नहीं जानती यह मूर्ख भीड़
वह तो डगमगाती है
बार-बार दोहराती है
वही भूल
सत्ता के बाजीगरों का
स्वादिष्ट खाद्य
सम्मोहन तब खुद-ब-खुद
बन जाता है
भूल का प्रतारक विकल्प
बनाते जिसे दलबल सहित
सत्ता के स्वघोषित स्वामी अपना अस्त्र
कुर्सियों के चैगिर्द
जमा होती है बार बार गूंगी भीड़
और केंचुए की मानिन्द
फिर रेंगने लगता है
हमारा तथाकथित इतिहास
भीड़ की कोई नहीं होती रीढ़
तभी सरकने लगता है सबकुछ
केंचुए की तरह
राजपथ पर फिर घूमने लगते हैं
रथ के चक्के
खेंचती है जिन्हें सम्राट की प्रजा
पूरे का पूरा जुलूस
चलने लगता है
राजपथ पर
मगर पता नहीं
कहाँ जाना है उसे ?
राजगृह में जुट जाती है
विजय के बाद
चुनींदा-पसंदीदा लोगों की
एक और भीड़
चहलपहल होती है रंगारंग
रंगारंग ताजपोश शाशक की शान
सिंहासन के सम्मान में
खुश
बहुत खुश
होते हैं
खुशामदीद
कुलीन
दरबारीजन
पहुचाया जिन्हें यहां तक
प्रजा बनी मुखहीन भीड़ में।
</poem>