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आँगन-आँगन / केशव

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सब कुछ ही नहीं चला आता
रंगों के पुकारने से
कुछ है जो रंगों की
पुकार को अनसुना कर
छूट जाता है दहलीज के उस ओर
दरअसल उसका
न कोई रंग होता है
न ही देह
फिर
रंगों से मुक्त होना होता है ज़रूरी
और विदेह होना भी
बहुत दिन बाद
शायद एक युग के बाद
लौटी हूँ फिर अपने आँगन में
पेड़ पर बैठी चिड़ियों को
देख रही हूँ एकटक
जैसे पहले नहीं देखा कभी

इस आँगन में भी हैं सूर्य-चाँद
बारिश
और मौसमों की आँख-मिचौनी
जिनके लिए भटकती रही आँगन-आँगन।
</poem>
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