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20:42, 6 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=केशव
|संग्रह=|संग्रह=धरती होने का सुख / केशव
}}
<poem>
धरती का सुख
जब-जब बदलता है
उसके दुख में
मनुष्य के सुख में लगती है सेंध
जानता है मनुष्य
फिर भी मानता नहीं
मानता है
धरती के दुख का उत्सव
धरती देख-देख मुस्कुराती
मनुष्य की छाती पर लोटते साँप।
</poem>