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00:23, 7 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=केशव
|संग्रह=|संग्रह=धरती होने का सुख / केशव
}}
<poem>
गली-गली से गुज़रें
तो शायद दिखे कोई मुकाम
किनती उजाले में बीती
कितनी अंधेरे में
तय करते हैं
पाँव के तलवे
तलवों के ज़ख्म ही
इस यात्रा का सच
ब्र्ह्माण्ड का
सच भी यही है
लालटेन की टरह
एक-एक कर जो
उजागर करता
अंधेरे के रहस्य
उम्र के बही-खाते में
दर्ज होता कुछ इसी तरह
सफर का हिसाब
क्या-क्या सवाल किये
क्या-क्या मिले जवाब
कहाँ-कहाँ से बच निकले
इस सच की उंग्ली थाम।
</poem>