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00:46, 7 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=केशव
|संग्रह=|संग्रह=धरती होने का सुख / केशव
}}
<poem>
यह जो
तन का सुख है
मन से
कोसों दूर
टिमटिमाता
आदमी के अवतरण से
जीभ लपलपाता
मन का सुख
गाँव में
फेरी वाले की तरह आता
तन का सुख
टिकाऊ
मन का सुख
बिकाऊ
खरीदने की हिम्मत भर
कोई बिरला ही जुटा पाता।
</poem>