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12:16, 7 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=केशव
|संग्रह=|संग्रह=धरती होने का सुख / केशव
}}
<poem>
जैसे नदी
बरसों घिस-घिसकर
देती के पत्थर को
आकार
वही पत्थर
जो रखता है
सभ्यता की नींव
फिर एक छलाँग
एक जीवन से
दूसरे में
ठीक वैसे ही
दे सकूं अपने संकल्प को एक अर्थ
किसी की उम्मीद में उदित हो सकूं
सितारे की तरह
किसी की प्रार्थना में
जोड़ सकूँ अपनी पुकार
कुछ ऐसा हो जीवन
कि वरण कर ले
दूसरे की दुनिया का आर्त्तनाद ।
</poem>