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12:24, 7 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=केशव
|संग्रह=|संग्रह=धरती होने का सुख / केशव
}}
<poem>
वह
जल्दी बनना चाहता है
जैसा उसे बनना चाहिए
जैसा उसे होना चाइये
अपने से भागते-भागते
वह बेज़ार हो चुका है
इसीलिए
वह कोशिश में है
कि छोड़ दे
हादसों में से होकर गुज़रना
हालांकि हादसे उसमें से होकर
गुज़रते रहते हैं अक्सर
छोड़ दे
उन बातो पर यकीन करना
जो उसे बार-बार
कगार पर छोड़ आती हैं
जहाँ से नीचे झाँकने पर
डर लगता है उसे
और लौटते ही जीवन का डंक
दो छोरों के बीच की इस दौड़ को
अलविदा कहना चाहता है वह
आश्चर्य कि उसकी प्रार्थना
हर बार
वहाँ से लौट आती है
जहाँ से अनसुना
लौटता नहीं क्य्छ
क्यों नहीं सुनी उसने
पूरी कहानी
चक्र्व्यूह में घुसने से पहले।
2
आसमान में बादल नहीं
न खलिहान में अन्न्अ
मेंड़ पर बैठा किसान
देख-देखकर हैरान
किसान के चूल्हे से ग़ायब धुआँ
खाली-खाली आस का कूँआ
खेत-खेत बंजर
एक बंजर किसान के मन के अन्दर
गिद्ध की तरह नोचती कण्ठ में प्यास
सपने की तरह दौड़ती आस।
3
मुझे नहीं होना जंगल
बार-बार क्यों बुलाते हो
अपने पास
मुझे होने दो
अपने में ही घना
और घना
ताकि सौंप सकूँ
खुद को
अपना आप निर्ब्याज़
</poem>