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खेल / केशव

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धूप
धुले
खुले
ये दिन
मेंड़
मेंड़
उड़ता फिरता
पागल मन

कुछ इस कदर है व्यस्त
छाँव
मेहमानों की दरकार में
कि पूछ सके
पथिक से
पहुँचे यहाँ
कितने
मील-पत्थर गिने

धरती के पास
नहीं फुरसत
कि देख सके
आँख
भर
अनंत काल से संगी
आसमान को
कुछ इस कदर वह
धूप-छाँव के
खेल में मग्न

बाहर का सब सिमट
खो गया कहीं
देखते-देखते
भीतर से उठा कोई
खिली मुद्रा में
चल दिया उस ओर
उसे पाने
या अपनी व्यथा-कथा दोहराने
या देखने
घर की ओर लौटते
उसके पदचिन्ह

यह सब
नहीं घटता
भीतर
बाहर भी घटे कैसे
गति तो तुझमें है
तभी तो जीवन गतिमय।

द्वार ख़ुले सभी
खुले हर खिड़की
तभी तो आएगा
जाएगा तू
परेंदे की तरह
ज्यों बहती नदी
समुद्र की ओर
फिर से
नदी बनने के लिए ।
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