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13:49, 7 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=केशव
|संग्रह=|संग्रह=धरती होने का सुख / केशव
}}
<poem>
मेरी
उससे कोई बात न हो सकी
पूरी तैयारी के बावजूद
कुछ बातें शायद
कभी नहीं होती
वह पल गुज़र जाने के बाद
दूसरी बातों के लिए
जगह छोड़
लौट जाती है
अपने स्रोत में
फिर से उस पल के
हमारे बीच
लौटने के इंतज़ार में
पड़ी रहती हैं
एक बँधी हुई गठरी की तरह
हमारे ही भीतर
किसी ब्लैकहोल में
गाँठ कुछ इस कदर
कसी हुई
कि किसी भी किरण के खोले न खुले।
</poem>