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ख़ूबसूरती / केशव

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|रचनाकार=केशव
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मैं जानता हूँ
सब जानते हैं कि
तुम ख़ूबसरत हो
ज़रूरत से कहीं अधिक
जानती हो तुम
अफसोस कि
तुम खूबसूरती से
उतनी ही दूर हो
जितने कि सब निकट

'''2'''

कल से बेख़बर
आज पर मुग्ध
तुमने बताई मुझे
खूबसूरती की परिभाषा
मैं कल में उतरकर
देखता रहा भोंचक
कुछ पल पहले
पंछियों से आबाद डाल ।

''' 3'''
बहुत ख़ूबसूरत हो
यह पता चला मुझे
तुमसे ही
ख़ुद से पूछा
तो नहीं मिला
कोई जवाब

खूबसूरती एक खिलखिलाहट है
जो न तुम तक पहूँची
न मुझ तक ।

'''4'''

ख़ूबसूरती में डूबी तुम
करती रही
मेरी दस्तक का इंतज़ार
मैं दरवाज़े तक
जाकर भी
लौट आया खाली हाथ
क्या इस कदर
नश्वर होता है
खूबसरती का संसार ।
</poem>
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