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खुशी (कविता) / केशव

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माँ बाप की इच्छा थी
कि मैं
अपनी ख़ुशी से ज़्यादा
जीऊं उनकी ख़ुशी के लिये
जिनके दु:ख में
शामिल नहीं रहता
एक तिनका तक
अपने जीवन को भरूं
जहां-जहां ख़ाली रह गए थे वे
चलूं उस रास्ते पर
जिस पर चलना
उनका सपना था
वे अक्सर कहते रहे
के मैं
अपनी आवाज़ का इस्तेमाल
दूसरों को डराने के लिये नहीं
खुद को हर
भय से मुक्त करने के लिये करूं
जब भी रहने के लिये बनाऊं
घर
तो हर दीवार में
ज़रूर रखूं एक
खिड़की
पहला कौर
मुंह में डालने से पहले
स्मरण करूं जरूर
कि भूख़ होती है
कितनी आक्रामक
उनकी इच्छा थी
समयातीत
लेकिन
म्रेरे
समय का
बैकुण्ठ
कुछ और ही
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