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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रफुल्ल कुमार परवेज़
|संग्रह=संसार की धूप / प्रफुल्ल कुमार परवेज़
}}
[[Category:कविता]]
<poem>कितनी धार्मिक होती है बंदूक़
जिसने छूटकर धर्म
बेक़सूर आदमी में
दनादन उतर जाता है

कितनी धार्मिक होती हैं इच्छाएँ
कि आदमी आदमीपन से मुकर जाता है
और लगातार चील की तरह् मंडराता है

कितनी धार्मिक होती है भूख
जो केवल लाशें निगलती हैं


कितनी धार्मिक होती है प्यास
जो केवल खून पीती है

कितनी धार्मिक प्रतिक्रिया
लाश के बदले लाश
खून के बदले खून

कितने धार्मिक होते हैं धर्म ग्रंथ
समय की गवाही में
को केवल शब्दाडंबर हैं
आदमी के दिमाग़ में जब भी खुलते हैं शब्दार्थ
ठीक विपरीत खुलते हैं
प्रत्यक्ष जो अंदर हैं


</poem>
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