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16:55, 8 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सौदा
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[[category: ग़ज़ल]]
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निकल न चौखट से से घर की प्यारे जो पट के ओझल ठिटक रहा है
सिमट के घट से तिरे दर्स को नयन में जी आ, अटक रहा है
अगन ने तेरी बिरह की जब से झुलस दिया है मिरा कलेजा
हिया की धड़कन में क्या बताऊँ, ये कोयला-सा चटक रहा है
जिन्हों की छाती से पार बरछी हुई है रन में वो सूरमा हैं
बड़ा वो सावंत1, मन में जिसके बिरह का काँटा खटक रहा है
मुझे पसीना जो तेरे नख पर दिखायी देता है तो सोचता हूँ
ये क्योंके2 सूरज की जोत के आगे हरेक तारा छिटक रहा है
हिलोरे यूँ ले न ओस की बूँद लग के फूलों की पंखड़ी से
तुम्हारे कानों में जिस तरह से हरेक मोती लटक रहा है
कभू लगा है न आते-जाते जो बैठकर टुक उसे निकालूँ
सजन, जो काँटा है तेरी गली का सो पग से मेरे खटक रहा है
कोई जो मुझसे ये पूछ्ता है कि क्यों तू रोता है, कह तो हमसे
हरेक आँसू मिरे नयन का जगह-जगह सर पटक रहा है
जो बाट उसके मिलने की होवे उसका, पता बता दो मुझे सिरीजन3
तुम्हारी बटियों में4 आज बरसों से ये बटोही भटक रहा है
जो मैंने 'सौदा' से जाके पूछा, तुझे कुछ अपने है मन की सुध-बुध
ये रोके मुझसे कहा : किसी की लटक में लट की लटक रहा है
'''शब्दार्थ:
1. सामंत 2. कैसे 3. श्रीजन 4. गलियों में
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