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{{KKRachna
|रचनाकार=मधुप कुमार
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<Poem>
सड़कें वैसी ही
हो चली हैं

क़तारबद्ध मुसाफ़िर अपने-अपने हिसाब से जगह
छोड़कर सोए हुए हैं

और वह भी सोई हुई है मैंने उसे धीरे
से जगाकर कहा- मटमैली किरणें बिखर रही हैं
अपने हिस्से की सुबह चुपके
से समेट लो

और देखो सड़क के भीतर फ़ैला आकाश
कितना मुलायम हो गया है
जिसमेंतारे खोज रहे हैं अपनी मासूमियत
अन्तरिक्ष तक उठने से पहले आकाशगंगा की लहर
सिहर रही है चेतना की परिधि पर

सचमुच कितना अद्भुत है यह दृश्य
कि सड़कों की नींद में सोए मुसाफ़िर उठते जा रहे हैं

कि अन्तरिक्ष में लटका हुआ चन्द्रमा
मुसाफ़िर की नींद में वैसा ही हो चला है जैसी
हो चली है सड़क।
</poem>