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ताश का खेल-2 / ललन चतुर्वेदी

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|रचनाकार=ललन चतुर्वेदी
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<Poem>
एक दिन जोकर ने तोड़ी
सदियों की अपनी चुप्पी
सारे पत्ते हो गए स्तब्ध, अवाक
सुनकर उसकी मांग--
'मुझे भी मुख्य धारा में शामिल करो,
कब तक मुझे रखोगे अलग-थलग
तुम जो कर सकते हो
क्या वह मैं नहीं कर सकता
हर जगह बख़ूबी
मैं अपनी भूमिका निभाने लगा हूँ
सभ्यों की महफ़िल में आने-जाने लगा हूँ
ग़ौर से देखो मान-सम्मान पाने लगा हूँ'

बेगम ने सहमति में सिर हिलाया
बादशाह को भी यह ख़्याल
बहुत पसन्द आया
ग़ुलाम हुक्मतामिला के लिए
मानो पहले से तैयार बैठा था
जोकर ख़ुश हो गया
आजकल वही करता है
हार-जीत का फ़ैसला।
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