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दाग़ / भागवतशरण झा 'अनिमेष'

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|रचनाकार=भागवतशरण झा 'अनिमेष'
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<Poem>
चेहरे पर
चेचक के दाग़
भले ही
नहीं लगते हैं अच्छे
मगर वे
संत की तरह
मन की व्यथा कहते हैं

दाग़
हमेशा सामनेवालों से
करते हैं अर्ज़
मेरे भीतर
झाँक कर देखो
हो सके तो
पा लो ऎसी दीद
जो देख सके बेदाग़ दिल
दिखा सके दिल के दाग़।
</poem>