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02:37, 12 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अमृता प्रीतम
|संग्रह=
}}
<poem>
इलहाम के धुएँ से लेकर
सिगरेट की राख तक
उम्र की सूरज ढले
माथे की सोच बले
एक फेफड़ा गले
एक वीयतनाम जले...
और रोशनी
अँधेरे का बदन ज्यों ज्वर में तपे
और ज्वर की अचेतना में –
हर मज़हब बड़राये
हर फ़लसफ़ा लंगड़ाये
हर नज़्म तुतलाये
और कहना-सा चाहे
कि हर सल्तनत
सिक्के की होती है, बारूद की होती है
और हर जन्मपत्री –
आदम के जन्म की
एक झूठी गवाही देती है।
पैर में लोहा डले
कान में पत्थर ढले
सोचों का हिसाब रुके
सिक्के का हिसाब चले
और मैं आदि-अन्त में बनता
माँस की एक ऐश ट्रे
इलहाम के धुएँ से लेकर
सिगरेट की राख तक
मैंने जो फ़िक्र पिये
उनकी राख झाड़ी थी
तुम भी झाड़ सकते हो
और चाहो तो माँस की
यह ऐश ट्रे मेज़ पर सजाओ
या गांधी, लूथर और कैनेडी कहकर
चाहो तो तोड़ सकते हो –
</poem>