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14:17, 13 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=ब्रजेश कृष्ण
|संग्रह=
}}
<Poem>
इन दिनों
अक्सर देखती है वह
पेडों को गुनगुनाते हुए
उसके लिए गुब्बारे की तरह
हल्की हो चुकी है धरती
और आसमान से लगतार आती है
बाजों की गूँज
इन दिनों
उसे सुनाई देती है हर समय
एक धीमी और फूलों के बहुत पास से
आती हुई झिलमिल हँसी
वह सिर्फ़ एक सपना बुनती है इन दिनों
इन दिनों
वह जीवन के
सबसे पवित्र अनुभव से गुज़र रही है
वह माँ बन रही है इन दिनों ।
</poem>