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ना बेटी, ना / जगदीश नलिन

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|रचनाकार=जगदीश नलिन
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}}
<Poem>
रेल की पटरियों से
समाधान खोजती
अपने वज़ूद की चिन्दियाँ
उड़ाने पर आमादा
अपने कुल-मर्यादा की चौखट
कैसे लाँघ गई बेटी?

पुरखों की पगड़ियाँ
तुम्हारे रास्ते भर बिछी रहीं
उनकी सलवटों में
तुम्हारे पाँव जब-तब
ज़रूर लदफदाए होंगे

'ना बेटी, ऎसे न रौंदो'
का आग्रह उनका अनसुना करती
तुम तो बस अपने नर्म पाँवों को
सख़्त बनाती बेतहाशा
चलती गईं, चलती गईं बदहवास

लम्हा भर भी तुम नहीं रुकी
तुम्हें तो ज़िद थी किसी की नही सुनने की
वापसी की कोई भी सिफ़ारिश
कबूल नहीं थी तुम्हें

ज़रा तो सोचतीं
पुरखों की पगड़ियाँ पताके बन जाती हैं
जब कोई बेटी
अपने शील, धैर्य और सहनशीलता से
उन्हें अपने सर पर तान लेती है

पगडंडियाँ तो कई मुक़ामों को जाती हैं
उनकी हदों में
तुमने ज़िन्दगी के आख़िरी पड़ाव
को किन आँखों से लक्ष्य किया?

यह तुम्हारी अपरिपक्व प्रज्ञा का निर्णय था
या कि तुम्हारे त्वरित उद्रेक क झोंका था
या महज़ तुम्हारी तुनकमिज़ाज़ी थी
नाराज़गी तो क़तई नहीं थी
नाराज़गी ऎसे हादसे तय नहीं करती

कच्ची उम्र के बचकाने तजुर्बे
के हवाले हो गईं तुम
और भूल गईं तुम
माँ के दुलार की लहलहाती हरी-हरी कोंपलें
बाप की सूनी आँखों में आँसू के क़तरे
भाई-बहनों, सखी-सहेलियों का
मृगशावक-सा कुँलाचे भरता अनुराग
और मंदवायु की हल्की छुअन
से कम्पित जल तरंग की तरह
अपने मासूम क्वारे सपने

परिजन तुम्हारे आश्वस्त ज़रूर हुए
तुम्हारे पाँव किसी 'ऊँच-खाल' में न पड़े
तुम पर गर्व हुआ होगा उनको
तुम्हें सुरक्षित रेल की पटरियों से खींच
वापस लाने वाले
नन्हें क्रिकेट खिलाड़ियों को आशीषा होगा
जीने के हौसले ऎसे
नहीं गँवाते बेटी, ना बेटी ना!
</poem>