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{{KKRachna
|रचनाकार=यश मालवीय
}}
[[Category:गीत]]
<Poem>
एक भी कमरा नहीं है
मगर सौ-सौ खिड़कियाँ हैं
छत नहीं, ऊँचाइयों तक
सीढ़ियाँ ही सीढ़ियाँ हैं
:: रोशनी ही पी गए
:: कुछ लोग रोश्नदान थे जो
:: आग ही अपनी नहीं
:: किस आग को पालो सहेजो?
जल रहे घर, बस्तियाँ ही
:धुँए वाली चिमनियाँ हैं
:: पेड़-पत्ते चुप
:: कि सूनापन हवाओं में घुला है
:: ज़ेहन में बस
:: डबडबायी आँख वाला चुटकुला है
जिन्हें पढ़ने का नहीं साहस
:कि ऎसी चिट्ठियाँ हैं
:: होंठ अपने हिल रहे हैं
:: बात पर अपनी नहीं है
:: दृश्य हैं ऎसे कि अपनी
:: आँख भी झपनी नहीं है
ज़िन्दगी के हर सफ़े पर
:कुछ पुरानी ग़लतियाँ हैं
</poem>