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दुनिया / रघुवीर सहाय

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{{KKRachna
|रचनाकार =रघुवीर सहाय
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<poem>
हिलती हुई मुँडेरें हैं और चटखे हुए हैं पुल
बररे हुए दरवाज़े हैं और धँसते हुए चबूतरे

दुनिया एक चुरमुरायी हुई-सी चीज़ हो गई है
दुनिया एक पपड़ियायी हुई-सी चीज़ हो गई है

लोग आज भी खुश होते हैं
पर उस वक़्त एक बार तरस ज़रूर खाते हैं
लोग ज़्यादातर वक़्त संगीत सुना करते हैं
पर साथ-साथ और कुछ ज़रूर करते रहते हैं
मर्द मुसाहबत किया करते हैं, बच्चे स्कूल का काम
औरतें बुना करती हैं - दुनिया की सब औरतें मिलकर
एक दूसरे के नमूनोंवाला एक अनंत स्वेटर
दुनिया एक चिपचिपायी हुई-सी चीज़ हो गई है।

लोग या तो कृपा करते हैं या खुशामद करते हैं
लोग या तो ईर्ष्या करते हैं या चुगली खाते हैं
लोग या तो शिष्टाचार करते हैं या खिसियाते हैं
लोग या तो पश्चाताप करते हैं या घिघियाते हैं
न कोई तारीफ़ करता है न कोई बुराई करता है
न कोई हँसता है न कोई रोता है
न कोई प्यार करता है न कोई नफ़रत
लोग या तो दया करते हैं या घमंड
दुनिया एक फँफुदियायी हुई-चीज़ हो गई है।

लोग कुछ नहीं करते जो करना चाहिए तो लोग करते क्या हैं
यही तो सवाल है कि लोग करते क्या हैं अगर कुछ करते हैं
लोग सिर्फ़ लोग हैं, तमाम लोग, मार तमाम लोग
लोग ही लोग हैं चारों तरफ़ लोग, लोग, लोग
मुँह बाये हुए लोग और आँख चुँधियाये हुए लोग

कुढ़ते हुए लोग और बिराते हुए लोग
खुजलाते हुए लोग और सहलाते हुए लोग
दुनिया एक बजबजायी हुई-सी चीज़ हो गई है।
</poem>