1,133 bytes added,
18:59, 16 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रवीन्द्रनाथ त्यागी
|संग्रह=
}}
<poem>
मुस्कानों के नेपकिन बिछा
वे एक-दूसरे को ही खाने लगे
चुपचाप
पलाश, भाद्रपदी हवाएँ और वर्षा
उन्होंने कुछ नहीं देखा;
उन्होंने सिर्फ़ उन्हें आँका
जिनके खा जाने के बाद
उनका भय और बढ़ना था
समुद्र की मेज़ पर
शाम के बावर्ची ने
सूरज का मुर्गा कर दिया हलाल
और वे सब अफ़सर, दलाल और वकील
उन लोगों से गले मिलने लगे
जिन्हें निगलना अभी बाक़ी था
पलाश, भाद्रपदी हवाएँ और वर्षा
उन्होंने कुछ नहीं देखा।
</poem>