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बेयरा / सुदर्शन वशिष्ठ

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|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
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<poem>
वर्दी उतारने के बाद वह
एकदम बन जाता है आदमी
एक पिता
भाई पुत्र।

ग्राहकों का दिया टिप
वेतन से ज्यादा उत्साह देता है
कभी यह वेतन की बराबरी करता है।

जानता है बेयरा
रोज रोज कौन चुकाता है बिल
कौन देता है कितना टिप
कौन पहले इन्कार कर
खा पी जाता है सब कुछ
बगलें झांकता है बिल आता देख
व्यस्त हो जाता है बातों में
कौन है ज़िंदादिल या
पत्नी की नज़रों में बेहद खर्चीला
जो नित चुकाता है बिल।

कोसता है बेयरा उन्हें
जो बैठे रहते हैं
घर से बाहर घण्टों
जिन का शायद नहीं है घर परिवार
घर से भगाए हैं।

वर्दी उतार बन जाता है बेयरा आदमी
आश्चर्यजनक है उस का चोला उतारना
अवतार से भी ज्यादा
वर्दियां आदमी को आदमी नगीं रहने देतीं।
</poem>
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