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22:29, 18 फ़रवरी 2009 सारे आत्मीय संबोधन
कर चुके हम
पर जाने क्यों चाहते हैं
कि वह मेरा नाम
संगमरमर पर खुदवाकर
भेंट कर दे
सबसे सफ्फाक और हौला स्पर्श
दे चुके हम
फिर भी चाहते हैं
कि उसके गले से झूलते
तस्वीर हो जाए एक
जिंदगी के
सबसे भारहीन पल
हम गुजार चुके
साथ-साथ
अब क्या चाहते हैं
कि पत्थर बन
लटक जाएं गले से
और साथ ले डूबें
छिह यह प्यार में
कैसे पसर आता है बाजार
जो मौत के बाद के दिन भी
तय कर जाना चाहता है ...