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07:39, 22 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अविनाश
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<Poem>मैं थोड़ा सभ्य हूं
मुझसे ज्यादा सभ्य हैं वे लोग
जिनके साथ मैं काम करता हूं
वे मेरे उस्ताद नहीं हैं फिर भी
ऐसा जताते हैं जैसे
वे मुझे दुनिया में रहना सिखा रहे हैं
शायद यह सच हो
क्योंकि दुनिया में रहना कई लोगों का कई तरह से होता है
और रहने के हर तरीक़े में सभ्यताओं का अंतर होता है
वे चाहते हैं मैं उनकी तरह से रहूं
या अगर नहीं भी चाहते हैं
तो इतना तो जता ही देते हैं
कि रहने का उनका तरीक़ा ही है सबसे सभ्य
मैं... जो थोड़ा सभ्य हूं
उन बदतमीजों से कतई सभ्य
जिनकी बस्ती में अफ़सोस की तरह पैदा हुआ था मैं
और सब ऐसे खुश थे जैसे मैं हर घर में पैदा हुआ हूं
मैं उस जंगल से निकल आया
पर वह अब भी असभ्यों की बस्ती है
लोग ऐसे पास रहते हैं
जैसे देह और देह के बीच
थोड़ी दूरी रखने की
तहजीब ही न हो उनमें
घर में ऐसे घुस आएंगे जैसे उनका ही घर हो
वह भी बिना बताये
बिस्तर पर पांव समेट कर ऐसे बैठ जाएंगे
जैसे जनम-जनम का अपनापा हो
न कम बोलना, न संभल कर बोलना
पर वे सब लोग उनसे सभ्य हैं
जो ईसा पूर्व की किसी शताब्दी में
जानवरों से रखते थे दोस्ती
मैं सभ्य हूं क्योंकि मैं अपनी बस्ती के लोगों को
पीछे छोड़ आया हूं
पर यहां मेरी सभ्यता जाती रहती है
जब फिसलती हुई फर्श पर बेधड़क चलते हुए लोगों को
देखता हूं हंसते-मुस्कुराते
उनके बोलने का अर्थ समझ में न आने की रफ्तार में
जब वे बोलते हैं
मैं उनसे थोड़ा कम सभ्य
उनसे धीरे-धीरे बोलने की गुजारिश करता हू...
उन्हें लगता है एक गंवार ने उनकी बोली-बानी का अपमान किया है
‘बहरे कहीं के’
पर मैं न तो बहरा हूं न गंवार
गंवारों की बस्ती तो वह है जहां मैं रहता था
वे वाकई असभ्य हैं
मैं उनसे बहुत ज्यादा सभ्य
मेरे साथ काम करनेवाले लोग मुझसे थोड़ा अधिक सभ्य
आह अभिलाषा! मेरी महत्वाकांक्षा!
कितने सभ्य होते होंगे प्रधानमंत्री!</poem>