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'''शीर्षक: '''मांझी ! अब देखिये न बजाओ बंशीमेरी कारगुज़ारी<br> '''रचनाकार:''' [[केदारनाथ अग्रवालअज्ञेय]]
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मांझी ! अब देखिये न बजाओ बंशी मेरा मन डोलता मेरी कारगुज़ारीकि मैं मँगनी के घोड़े परमेरा मन डोलता है जैसे जल डोलता सवारी परठाकुर साहब के लिए उन की रियाया से लगानजल का जहाज जैसे पलऔर सेठ साहब के लिए पंसार-पल डोलता हट्टे की हर दुकानसे किरायामांझी ! न बजाओ बंशी मेरा प्रन टूटता वसूल कर लाया हूँ ।थैली वाले को थैलीमेरा प्रन टूटता है जैसे तृन टूटता तोड़े वाले को तोड़ा-और घोड़े वाले को घोड़ातृन सब को सब का निवास जैसे बन-बन टूटता लौटा दियाअब मेरे पास यह घमंड हैमांझी ! न बजाओ बंशी कि सारा समाज मेरा तन झूमता मेरा तन झूमता एहसानमन्द है तेरा तन झूमता मेरा तन तेरा तन एक बन झूमता ।
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