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{{KKRachna
|रचनाकार=धीरज आमेटा ’धीर’
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धीर! अपने ही दामन को, बेदाग़ बनाना है,
फिर जा के ज़माने को आईना दिखाना है!

अब तेरी मुहब्बत भी इक भूला फ़साना है, [क़ता]
इक बंद लिफ़ाफ़ा है, इक ख्वाब पुराना है!

अब मुझ से, बता तू ही! उम्मीद-ए-वफ़ा कैसी?
वो और ज़माना था, ये और ज़माना है!

उस अब्र को सावन भी, दरकार भला क्यों हों,
दामन जो भिगोता है,आंखों में ठिकाना है!

वो तीर-ए-नज़र तेरा, ये चाक-ए-जिगर मेरा,
खतरे हैं बहुत लेकिन,ये खेल सुहाना है!

क्यों हर्फ़-ए-नसीहत को, अब कोई नहीं सुनता?
बाबा! ये ज़माना क्या पहले से सयाना है?

</poem>
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