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22:03, 1 अप्रैल 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=शार्दुला नोगजा
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मैं हूँ तीस्ता नदी, गुड़मुड़ी अनछुई
मेरा अंग अंग भरा, हीरे-पन्ने जड़ा
मैं पहाड़ों पे गाती मधुर रागिनी
और मुझ से ही वन में हरा रंग गिरा ।
'पत्थरों पे उछल के संभलना सखि'
मुझ से हंस के कहा इक बुरुंश फूल ने
अपनी चांदी की पायल मुझे दे गयी
मुझेसे बातें करी जब नरम धूप ने ।
मैं लचकती चली, थकती, रुकती चली
मेरे बालों को सहला गयी मलयजें
मुझ से ले बिजलियाँ गाँव रोशन हुए
हो के कुर्बां मिटीं मुझ पे ये सरहदें ।
कितने धर्मों के पाँवों मैं धोती चली
क्षेम पूछा पताका ने कर थाम के
घंटियों की ध्वनि मुझ में आ घुल गयी
जाने किसने पुकारा मेरा नाम ले ।
झरने मुझसे मिले, मैं निखरती गयी
चीड़ ने देख मुझ में संवारा बदन
आप आये तो मुझ में ज्यों जां आ गयी
आप से मिल के मेरे भरे ये नयन ।
मैं हूँ तीस्ता नदी, गुड़मुड़ी अनछुई !
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