:::जमती है सिर्फ बर्फ,<br>
:::जो, कफन कफ़न की तरह सफेद सफ़ेद और,<br>
:::मौत की तरह ठंडी होती है।<br>
:::खेलती, खिल-खिलाती नदी,<br>
ऐसी ऊँचाई<br>
जिसका दरस हीन भाव भर दे,<br>
अभिनन्दन अभिनंदन की अधिकारी है,<br>
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,<br>
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,<br><br>
:::वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,<br>
:::ना कोई थका-मांदा बटोही,<br>
:::उसकी छांव छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।<br><br>
सच्चाई यह है कि<br>
केवल ऊँचाई ही काफी काफ़ी नहीं होती,<br><br>
सबसे अलग-थलग,<br>
परिवेश से पृथक,<br>
अपनों से कटा-बंटाबँटा,<br>
शून्य में अकेला खड़ा होना,<br>
पहाड़ की महानता नहीं,<br>
:::मन ही मन रोता है।<br><br>
जरूरी ज़रूरी यह है कि<br>
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,<br>
जिससे मनुष्य,<br>
ठूंट ठूँठ सा खड़ा न रहे,<br>
औरों से घुले-मिले,<br>
किसी को साथ ले,<br>
धरती को बौनों की नहीं,<br>
ऊँचे कद के इन्सानों इंसानों की जरूरत है।<br>
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,<br>
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,<br><br>
:::किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,<br>
:::कि पाँव तले दूब ही न जमे,<br>
:::कोई कांटा काँटा न चुभे,<br>
:::कोई कली न खिले।<br><br>
न वसंत हो, न पतझड़,<br>
हों हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,<br>
मात्र अकेलापन का सन्नाटा।<br><br>
:::मेरे प्रभु!<br>
:::मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,<br>
:::गैरों ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,<br>
:::इतनी रुखाई कभी मत देना।<br><br>