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शाकुंतलम / के० सच्चिदानंदन

No change in size, 07:27, 14 अप्रैल 2009
<Poem>
हर प्रेमी अभिषप्त अभिशप्त है
भूल जाने को, कम से कम कुछ देर के लिए
अपनी स्त्री को : जैसे विस्मरण की नदी
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