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09:21, 16 अप्रैल 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-2
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<poem>
मैंने कामना की
तुम्हारी काया की
तुम्हारे मन और
तुम्हारे सपनों के बारे में सोचा
बहुत दूर से उतरती
एक छाया देखी मैंने
तुम्हारी आंखों में
तुम खंडहरों के बीच अकेली घूम रही थी
चिलचिलाती धूप में
पात झरे दरख़्त के नीचे
एक परछाईं पड़ी थी आधी झुलसी
बुतों के जंगल में
मैं तुम्हें आवाज़ दे रहा था
शायद तुमने कुछ नहीं सुना
शायद तुम बहुत परेशान थीं
शायद हवा में कोई जादू था
शायद वहीं कहीं छिपा था प्यार
जिसे तुम खो आयी थीं
और मैं ढूँढ़ रहा था ।
</poem>