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09:33, 16 अप्रैल 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रेम नारायण ’पंकिल’
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आह्लादित अंतर वसुंधरा दृग मोती ले ले मधुकर
भावतंतु में गूंथ हृदय की मधुर सुमन माला निर्झर
पिन्हा ग्रीव में आत्मसमर्पण कर होती कृतार्थ धरणी
टेर रहा सर्वस्वस्वीकृता मुरली तेरा मुरलीधर।।61।।
अगरु धूम से उड़े जा रहे अम्बर में जलधर मधुकर
सुर धनु की पहना देते उसको चपला माला निर्झर
नीर बरस कर अर्घ्य आरती करती घन विद्युत माला
टेर रहा मधुरामनुहारा मुरली तेरा मुरलीधर।।62।।
तुच्छ न कह ठुकराना वाला वह तेरा अर्पण मधुकर
लघु पद सरिता को भी उर में भरता विशद सिंधु निर्झर
लतिकाओं की वेदी में खेला करते लघु ललित सुमन
टेर रहा प्रतिकणक्षणपर्वा मुरली तेरा मुरलीधर।।63।।
जड़ पारसमणि छू लोहा भी कुंदन हो जाता मधुकर
प्राणनाथ सच्चा प्रियतम तो परम चेतना का निर्झर
स्नेहमयी ममता से तुमको सटा हृदय से हृदयेश्वर
टेर रहा परिवर्तनप्राणा मुरली तेरा मुरलीधर।।64।।
भले चपल अलि कुटिल कलुषमय पर उसका ही तू मधुकर
सभी निर्धनों का धन वह सब असहायों का बल निर्झर
लांछित होकर भी न हिरण को कभीं त्याग देता हिमकर
टेर रहा स्वजनाश्रयशीला मुरली तेरा मुरलीधर।।65।।
अगणित जन्मों की ले दारुण कर्मश्रृंखलायें मधुकर
जब जो भी दीखता उसी से व्याकुल पूछ रहा निर्झर
उसका कौन पता बतलाये नाम रुप गति अकथ कथा
टेर रहा करुणासाध्या मुरली तेरा मुरलीधर।।66।।
क्या कण कण वासी अनन्त का अन्वेषण संभव मधुकर
स्वयं भावना समझ करुण वह पास उतर आता निर्झर
चन्द्र दिवाकर स्वयं कृपाकर करते ज्योर्तिमय त्रिभुवन
टेर रहा स्वजनांकमालिका मुरली तेरा मुरलीधर।।67।।
तृषित चंचु चातक तुम सच्चा स्वाति मेघ माला मधुकर
तुम पतझर पूरित कानन वह प्रियतम वासंती निर्झर
तुम चकोर वह चंद्र मयूरी तुम वह श्रावण जलज सजल
टेर रहा अंतराकर्षिणी मुरली तेरा मुरलीधर।।68।।
रोता गगन बिलखती धरती दहक रहा पावक मधुकर
उबल रहा पाथोधि प्रकम्पित मारुत का अंतर निर्झर
उद्वेलित वन खग पुकारते वह सच्चा प्राणेश कहाँ
टेर रहा है पीरप्रणयिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।69।।
प्रभु तुमको जानते अपर फिर जाने मत जाने मधुकर
तेरा सच्चा से परिचय फिर मिले न मिले अपर निर्झर
उस हृदयस्थ परम प्रियतम की चरण शरण ही कल्याणी
टेर रहा करुणापयोधरा मुरली तेरा मुरलीधर।।70।।
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