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09:58, 16 अप्रैल 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=धीरज आमेटा ’धीर’
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वो जो चाँद-तारों के ख्वाब को भी सिराहने छोड़ सका नहीं,
उसे खाक़ चैन नसीब हो, जो हक़ीक़तों मे जिया नहीं!
तुझे ये समझ के भुला दिया कि मिरे लिये तु बना नहीं,
"किसी और ही की पुकार है, मिरी ज़िन्दगी की सदा नहीं!" - ज़िगर मुरादाबदी
बता आईने! तुझे किसलिये मेरी शक़्ल पर तरस आ गया?
मिरा आज मेरे अतीत से, किसी हाल में भी बुरा नहीं!
मैं फ़रेब-ए-ज़ेहन में हाल-ए-दिल से गुरेज़ कर के ये कह गया,
"किसी और ही की पुकार है, मिरी ज़िन्दगी की सदा नहीं!"
तिरी इक ही बिँदिया कमाल की, लगे मुझ को सोलह सिन्गार सी,
कहीं जिस्म सोने से लद गये मगर हुस्न तुझ सा खिला नहीं!
कहीं जेब अपनी टटोल कर कोई हसरतों को दबा गया!
कहीं हाथ जिस पे भी रख दिया, वो मजाल है कि मिला नहीं!
मियां! जितना चाहे जतन करो,वही बेतुकी सी ग़ज़ल कहो!
जिसे "धीर" कह्ते हैं शायरी,वो तुम्हारे बस की बला नहीं!
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