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भगवान तुम्हारे मन्दिर में, मैं तुम्हें रिझाने आई हूँ ।
 
वाणी में है माधुर्य नहीं, पर विनय सुनाने आई हूँ ।।
पूजा के लिए न पास फूल, फिर भी तो साहस देखो ।
 
सब के सन्मुख पानी होकर, मैं तुम्हें मनाने आई हूँ ।।
प्रभु का चरणामृत लेने को, दासी पर है जलपात्र नहीं ।
 
केवल अपना यह हृदय खोल, सब बन्ध दिखाने आई हूँ ।।
</poem>