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05:53, 20 अप्रैल 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=नित्यानन्द तुषार
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<Poem>
जो रहे सबके लबों पर उस हँसी को ढूँढ़िए
बँट सके सबके घरों में उस खुश़ी को ढूँढ़िए
देखिए तो आज सारा देश ही बीमार है
हो सके उपचार जिससे उस जड़ी को ढूँढ़िए
काम मुश्किल है बहुत पर कह रहा हूँ आपसे
हो सके तो भीड़ में से आदमी को ढ़ूढ़िए
हर दिशा में आजकल बारूद की दुर्गन्ध है
जो यहाँ ख़ुशबू बिखेरे उस कली को ढूँढ़िए
प्यास लगने से बहुत पहले हमेशा दोस्तो
जो न सूखी हो कभी भी उस नदी को ढूँढ़िए
शहर-भर में हर जगह तो हादसों की भीड़ है
हँस सकें हम सब जहाँ पर उस गली को ढूँढ़िए
क़त्ल, धोखा, लूट, चोरी तो यहाँ पर आम हैं
रहजनों से जो बची उस पालकी को ढूँढ़िए
</poem>