रोज की तरह ।
बस यही किया ।
जोड़े हैं काफिये-रदीफ़
कुछ नहीं किया ।
झूठ से सुलह ।
ज्यों मिलन-विरह ।
कोल्हू की परिधि फाइलें
मेज की सतह । ‘ठकुर सुहाती’ जुड़ी जमात, यहाँ यह मजा । मुँहदेखी, यदि न करो बात तो मिले सजा । सिर्फ बधिर, अंधे, गूँगों – के लिए जगह । डरा नहीं, आये तूफान, उमस क्या करुँ ? बंधक हैं अहं स्वाभिमान, घुटूँ औ’ मरूँ चर्चाएँ नित अभाव की – शाम औ’ सुबह। केवल पुंसत्वहीन, क्रोध, और बेबसी । अपनी सीमाओं का बोध खोखली हँसी झिड़क दिया बेवा माँ को उफ्, बिलावजह ।