984 bytes added,
18:41, 26 अप्रैल 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा
|संग्रह=तरकश / ऋषभ देव शर्मा
}}
<Poem>
हिंसा की दूकान खोलकर, बैठे ऊँचे देश
आशंका से दबी हवाएँ, आतंकित परिवेश
अंतरिक्ष तक पहुँच गया है, युद्धों का व्यापार
राजनीति ने नक्षत्रों में, भरा घृणा-विद्वेष
गर्म हवाओं के पंखों पर, लदा हुआ बारूद
‘खुसरो’ कैसे घर जाएगा, रैन हुई चहुं देश
महाशक्तियाँ रचा रही हैं, सामूहिक नरमेध
हाथ बढ़ाकर अभी खींच लो, कापालिक के केश</Poem>