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{{KKRachna
|रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा
|संग्रह=तरकश / ऋषभ देव शर्मा
}}
<Poem>
पेट भरा हो तो सूझे है, ताजा रोटी बासी रोटी
पापड़ ही पकवान लगे है, भूख न जाने सूखी रोटी

ऐंठी आँतों की नैतिकता, मोटे सेठों की नैतिकता
भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ हैं, रूखी रोटी चुपड़ी रोटी

घसियारों की एस बस्ती में, आदमखोरों की हस्ती में
रोज़ ख़ून के भाव बिके है, काली रोटी गोरी रोटी

आधा तन फुँकता है मिल में, आधा नाचे है महफ़िल में
सब कुछ बेच कमा पाए है, टुकड़ा रोटी आधी रोटी

शासन अनुशासन सिखलाता, पर मालिक चाबुक दिखलाता
संसद बाँट-बाँट खाए है, नेता रोटी मंत्री रोटी

लोकतंत्र का वो दूल्हा है, जिसका ये फूटा चूल्हा है
तपे तवे से हाथ पके हैं, छाला रोटी छैनी रोटी

नैतिक पतन इसे मत कहना, अपराधी की ओर न रहना
सावधान! ये हाथ उठे हैं, भाला रोटी बरछी रोटी</Poem>