चले थे जिस दर से बेखुदी में, उसी को फिर खट-खटा रहे हैं,
सिमट के चादर में सोने वाले, यूँ पाओं पाँव फैलाते जा रहे हैं!बढ़ी ज़रा आमदनी आमदन तो अपनी ज़रूरतों को बढ़ा रहे हैं!
तिरी ही बांती, दीया दिया भी तेरा, तिरे ही दम से ये रौशनी है!
तिरी हिफ़ाज़त में ज़िन्दगी के चिराग़ सब झिलमिला रहे हैं!