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08:48, 8 मई 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=दाग़ देहलवी
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क्या कहिये किस तरह से जवानी गुज़र गयी
बदनाम करने आई थी बदनाम कर गयी।
क्या क्या रही सहर को शब-ए-वस्ल की तलाश
कहता रहा अभी तो यहीं थी किधर गयी।
रहती है कब बहार-ए-जवानी तमाम उम्र
मानिन्दे-बू-ए-गुल इधर आयी उधर गयी।
नैरंग-ए-रोज़गार से बदला न रंग-ए-इश्क़
अपनी हमेशा एक तरह पर गुज़र गयी।